🌸 स्व कर्त्तव्य की पालना के प्रति रहें सजग : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण 🌸
-तेरापंथाधिशास्ता ने वाशीवासियों को कर्त्तव्यबोध की दी प्रेरणा
-आचार्यश्री की वाणी से निरंतर लाभान्वित हो श्रद्धालुजन
20.02.2024, मंगलवार, वाशी, नवी मुम्बई (महाराष्ट्र) :
जन-जन का कल्याण करने वाले, जन-जन को सन्मार्ग दिखाने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, शांतिदूत, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी वर्तमान में नवी मुम्बई के वाशी में ग्यारह दिवसीय प्रवास कर रहे हैं। अपने ग्यारहवें अधिशास्ता का ग्यारह दिवसीय प्रवास और उसमें भी तेरापंथ धर्मसंघ के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उत्सव मर्यादा महोत्सव को प्राप्त कर अत्यंत उल्लसित नजर आ रहे हैं।
अपने ग्यारह दिवसीय प्रवास के दसवें दिन यानी मंगलवार को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मर्यादा समवसरण में उपस्थित जनता को पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि साधु संयत हो, विरत हो, पाप कर्मों का प्रतिहनन करने वाला हो और पापकर्मों का प्रत्याख्यान करना वाला हो। कोई डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, उद्योगपति आदि-आदि तो कोई भी बन सकता है, किन्तु साधु बन जाना आत्मकल्याण की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण है। साधु का पहला कर्त्तव्य होता है, अपने साधुत्व की रक्षा करना। साधु अनेक भाषाओं का विद्वान बने न बने, बड़ा वक्ता बने न बने, साधु के लिए नम्बर एक बात वह होती है कि उसकी साधुता अच्छी रहे। मानव के जीवन में कर्त्तव्य का बड़ा महत्त्व होता है।
कर्त्तव्य का बोध होना और उसका पालन होना बड़ी बात होती है। कर्त्तव्य पालन से पहले कर्त्तव्यों का बोध हो तो आदमी कर्त्तव्यों के पालन की दिशा में आगे भी बढ़ सकता है। गुरुदेव तुलसी ने संस्कृत भाषा में एक छोटा ग्रन्थ लिखा है। जिसमें बताया गया कि जो अपने कर्त्तव्य को नहीं जानता, उसका कभी ऐसा भी अनिष्ट हो सकता है, जिसकी वह कल्पना भी न किया हो। लौकिक अनुकंपा के कारण भगवान ऋषभ ने लौकिक कर्त्तव्यों का पालन किया। साधु को अपने कर्त्तव्य के प्रति सजग रहने का प्रयास करना चाहिए। न्यारा में रहने वाले साधु-साध्वियों के सिंघाड़े के सामने मूलतः दो कर्त्तव्य, बखानवाणी और गोचरी-पानी। अग्रणी हैं वो बखान आदि कार्यों को संभाल लें और सहवर्ती गोचरी-पानी की व्यवस्था को संभाल तो कितना अच्छे से कार्य पूर्ण हो सकता है। आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी किया जा सकता है। जिसका जो कर्त्तव्य हो उसे व्यवस्थित रूप में करने का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि कहा गया है कि कर्त्तव्य व अकर्त्तव्य का विवेक न होने पर आदमी पशु के समान होता है। इसलिए आम आदमी को भी अपने कर्त्तव्य का बोध होना चाहिए। कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का विवेक होना बहुत आवश्यक है। आदमी को अपने कर्त्तव्य के प्रति सजगता होनी चाहिए।
मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने अणुव्रत गीत का आंशिक संगान किया। कार्यक्रम में आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की कृति ‘रहो भीतर जीयो बाहर’ का साध्वी वीरप्रभाजी द्वारा अंग्रेजी अनुवादित पुस्तक जैन विश्व भारती के पदाधिकारियों द्वारा आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित की गई। इस संदर्भ में साध्वी वीरप्रभाजी ने अपनी अभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने इस संदर्भ में आचार्यश्री ने प्रेरणा प्रदान की। अमेरिका से पूज्य सन्निधि में पहुंची रजनी जैन ने भी अपनी भावाभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री की अनुज्ञा से समणी नियोजिका अमलप्रज्ञाजी ने अपने विचार व्यक्त किए। श्रीमती रेणु कोठारी ने अपनी छह गीतों की शृंखला को पूज्यचरणों में समर्पित करते हुए अपनी गीत का संगान किया। डॉ. बलवंतजी ने हार्ट से संबंधित सीपीआर ट्रेनिंग के संबंधित जानकारी दी। डॉ. दीपक बैद ने सीपीआर की ट्रेनिंग दी।