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त्याग-धर्म
26/09/2023 बड़ौत
उत्तम त्याग : मुक्ति का आधार- आचार्य विशुद्ध सागर
जैनाचार्य श्री विशुद्धसागर जी गुरुदेव ने ऋषभ सभागार मे धर्मसभा में सम्बोधन करते हुए कहा कि – “त्याग प्रकृति का नियम है। त्याग श्रेष्ठ धर्म है। त्याग शांति का उपाय है। त्याग साधना है। त्याग में आनन्द है। त्याग स्वर्ग का सोपान है। त्याग सिद्धि का साधन है। त्याग कर्म दक्षय का हेतु है। त्याग सज्जनों की कुल-विद्या है। त्याग मुक्ति का उपाय है। निर्वाण के लिए त्याग आवश्यक है। सम्पूर्ण मोह का त्याग करके, मन-वचन- काय से निर्देग-भावना को भाते हैं, उनको त्याग धर्म होता है। मिष्ट भोजन, राग-द्वेष को उत्पन्न करने वाले उपकरण तथा ममत्व-भाव को उत्पन्न होने में निमित्त वसतिका को छोड़ देता है, उसी त्यागी को त्याग धर्म होता है। त्याग दुःख से छूटने का उपाय है। जो सब- कुछ त्याग देते हैं, वही परम शांति को प्राप्त कर सकता है। जितना-जितना त्याग होगा, उतनी-उतनी पूज्यता प्राप्त होती है। दुःख के कारणों को शीघ्र छोड़ना भी त्याग है।
त्याग श्रमणों की परम्परा है। त्याग से ही मोक्षमार्ग प्रारम्भ होता है। त्याग के बिना समाधि सम्भव नहीं है। आन्तरिक भावों से छोड़ना ही त्याग है। जोड़ते में कष्ट है, छोड़ने में आनन्द है । छोड़ने से, त्यागने से संकल्प-विकल्प कम होते हैं, निराकुलता बढ़ती है। छोड़कर चाहना, महापाप है।
मुनियों, तपस्वियों की साधना में सहायक आहार, औषध, सानाराधना हेतु शास्त्र- लेखनी एवं ठहरने हेतु भवन में स्थान देना, इसे त्याग जानना। ममत्व छोड़ना ही त्याग है। शक्ति अनुसार व्यक्ति को त्याग करना चाहिए। जिससे साधक की साधना बढ़े, तप में वृद्धि हो, परिणाम विशुद्ध हों, मोदामार्ग प्रशस्त हो, ऐसे आगमानुकूल साधन (उपकरण) श्रावक द्वारा साधुओं को उपलब्ध कराना चाहिए। स्व-पर उपकार हेतु, स्वयं के द्रथ को, क्या योग्य पात्र को रख हस्त से देना दान है। विधि, द्रव्य, यात्र और दान में विशेषता में आती है।
त्याग पूर्वक दान देना चाहिए। त्याग पूर्वक दिया गया दान ही भूषण बनता है। दान देते समय, किसी प्रकार की आकांक्षा नहीं होना चाहिए। निःकांक्ष भक्ति, निःकांश शन का फल ही सर्व श्रेष्ठ, उत्तम होता है। दान देते समय भव्य जीवों को हर्ष होता है। सभा का संचालन पंडित श्रेयांस जैन ने किया।
वरदान जैन मीडिया प्रभारी




