



🌸 स्वाध्याय, सेवा व तपस्या के क्षेत्र में हो विकास : अध्यात्मवेत्ता आचार्यश्री महाश्रमण 🌸
-ध्यान दिवस के रूप में आयोजित हुआ पर्युषण महापर्व का सातवां दिवस
-पर्युषण के शिखर दिवस संवत्सरी को लेकर शांतिदूत ने चतुर्विध धर्मसंघ को दी विविध प्रेरणाएं
-महाप्रज्ञ श्रुताराधना से जुड़ने को आचार्यश्री ने किया अभिप्रेरित
18.09.2023, सोमवार, घोड़बंदर रोड, मुम्बई (महाराष्ट्र) : पर्युषण महापर्व का सातवां दिन ध्यान दिवस के रूप में समायोजित हुआ। जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा के प्रणेता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में तीर्थंकर समवसरण में समुपस्थित जनता को सर्वप्रथम मुनि सुधांशुकुमारजी ने भगवान पार्श्वनाथ के जीवन के प्रसंगों को सुनाया। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने उपस्थित लोगों को ब्रह्मचर्य धर्म के विषय में प्रेरणा प्रदान की। मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी ने ब्रह्मचर्य व्रत पर आधारित गीत का संगान किया। साध्वी संगीतप्रभाजी आदि साध्वियों ने ध्यान दिवस के संदर्भ में गीत का संगान किया। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी ने उपस्थित जनता को ध्यान के महत्त्व को बताते हुए लोगों को ध्यान में भी कुछ समय नियोजित करने को अभिप्रेरित किया। युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित श्रद्धालु जनता को पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि परम पूजनीय भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा के दौरान अठारहवें भव में उनकी आत्मा वासुदेव त्रिपृष्ठ बनी तो अपने शासनकाल में एक बार वासुदेव त्रिपृष्ठ रात्रि में संगीत सुन रहे होते हैं, उन्हें नींद आती है तो वे अपने सेवक को अपने सो जाने पर संगीत को बंद करने का आदेश देते हैं, किन्तु सेवक द्वारा ऐसा नहीं किए जाने पर आक्रोशित त्रिपृष्ठ ने अपने सेवक के कानों में गर्म शिशा डलवा दिया और सवेक तड़पकर मृत्यु को प्राप्त हो गया। कुछ समय बाद पोतनपुर में तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का आना हुआ। त्रिपृष्ठ और अचल ने उनके प्रवचनों को सुना। त्रिपृष्ठ का मानस बदला और सम्यक्त्व स्वीकार किया, किन्तु कुछ समय पश्चात वह भी जाता रहा। इस प्रकार अनेक हिंसक कार्य त्रिपृष्ठ ने किए। इस प्रकार त्रिपृष्ठ अपना आयुष्य पूर्ण कर सातवें नरक में पैदा हुए और उसमें उत्कृष्ट आयुष्य का बंध कर सातवें नरक में पैदा हुए। वहां से आयुष्य पूर्ण कर बीसवें भव में सिंह के रूप में पैदा हुई। वहां भी आयुष्य पूरा हुआ तो चौथे नरक में भगवान महावीर की आत्मा पहुंच गई। 22वें भव में मां विमला के गर्भ से जन्में तो नाम विमलकुमार हुआ। समय आने पर उनके पिता प्रियमित्र ने उनका राज्यभार सौंप दिया। विमलकुमार बड़े दयालु राजा थे। एक बार जंगल में एक शिकारी द्वारा हिरणों को पकड़े देखा तो उसे समझाया और हिरणों को बचा लिया और उसे भी हत्या के पाप से बचा लिया। किसी को समझा कर हत्या का त्याग करा देना, भला इससे बड़ा कल्याण की क्या बात हो सकती है। वहां से पुनः आत्मा अपना आयुष्य पूरा करती है और राजा धनंजय के घर प्रियमित्र के रूप में उत्पन्न होती है। इस प्रियमित्र के भव में भगवान महावीर की आत्मा ने चक्रवर्ती का सम्मान प्राप्त किया। अपने 24वें भव में उनकी आत्मा सातवें देवलोक में पहुंची। 25वें भव में जीतशत्रु राजा के यहां नन्दन के रूप में जन्म लिया। बाद में साधुपन स्वीकार कर राजर्षि नन्दन बन गए। ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और फिर तपस्या में लग गए। साधु के जीवन में स्वाध्याय, सेवा और तपस्या का बहुत महत्त्व होता है। इसका महत्त्व तो आम आदमी के जीवन में भी होता है। एक छोटी अवस्था हो तो ऐसी स्थिति में आदमी को अपना समय ज्यादा से ज्यादा स्वाध्याय आदि में लगाने का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने छोटे साधु और छोटी साध्वियों व समणियों को प्रेरित करते हुए कहा कि महाप्रज्ञ श्रुताराधना, महिला मण्डल द्वारा चलाए जा रहे तत्त्वज्ञान आदि पाठ्यक्रमों से जुड़कर ज्ञान का विकास किया जा सकता है। अपना समय स्वाध्याय, अध्ययन में लगाने का प्रयास हो। ज्ञान के साथ-साथ अच्छे संस्कारों का विकास हो। सेवा का कार्य कहीं भी प्राप्त हो उसे करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को भी अपने जीवन में किसी को पवित्र सेवा देने का प्रयास करना चाहिए। इसके बाद तपस्या भी जितनी अच्छी हो सके। आचार्यश्री ने मंगलवार को संवत्सरी महापर्व के संदर्भ में उपस्थित जनता को उत्प्रेरित करते हुए कहा कि संवत्सरी महापर्व के दिन तो चारित्रात्माएं चौविहार उपवास करती हैं। गृहस्थ भी उपवास करने का प्रयास करें। बच्चों को भी जहां तक संभव हो सके, जितनी देर हो सके उतना ही उपवास कराने का प्रयास होना चाहिए। आचार्यश्री ने संवत्सरी के उपवास के दौरान बरती जाने वाले वाली सावधानियों और नियमों का उल्लेख करते हुए लोगों को उत्प्रेरित किया। कार्यक्रम के अंत में अनेक तपस्वियों ने अपनी-अपनी तपस्या का प्रत्याख्यान किया। श्रीमती वनिता बाफना ने 80 दिन की तपस्या का प्रत्याख्यान किया।












