

ब्रह्मचर्य की साधना दुष्कर है – मुनिश्री जिनेश कुमार जी
साउथ कोलकाता
आचार्य श्री महाश्रमण के सुशिष्य मुनिश्री जिनेश कुमारजी ने तेरापंथ भवन में सभा को संबोधित करते हुए कहा कि जीवन में तप का बहुत बड़ा महत्व है। तपस्या से रिद्धि सिद्धि की प्राप्ति होती है। तप के अनेक प्रकार है। तपों में सर्व श्रेष्ठ तप ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य की साधना में रत साधक को देव दानव गंधर्व राक्षस आदि नमस्कार, करते हैं। ब्रह्मचर्य की शक्ति विशेष होती है। साधु के लिए ब्रह्मचर्य की साधना जरुरी है। ब्रह्मचर्य धर्म का मूल है। अब्रह्मचर्य अधर्म, का मूल है। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए विभूषा स्त्री संसर्ग व गरिष्ठ भोजन से बचना चाहिए। काम राग, स्नेह राग, दृष्टिराग से बचना चाहिए। दृष्टि संयम से वासना नियंत्रित रहती हैं। एकाग्रता का विकास होता है। स्मरण शक्ति का विकास होता है। परस्त्रीगमन, वेश्यागमन, अप्राकृतिक मैथुन सेवन, काम भोग की तीव्र इच्छा आदि से व्यक्ति को बचना चाहिए। अब्रह्मचर्य के सेवन से नाना प्रकार की बीमारियों होती है। मुनिश्री ने आगे कहा दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं। इंन्द्रिय चेतना के स्तर पर जीने वाले और इन्द्रियातीत के स्तर पर जीने वाले। इंद्रिय चेतना के स्तर पर जीने वाला व्यक्ति भौतिक सुखो को ही सब कुछ मानता है। शब्द रूप, रस, स्पर्श गंध में डूबा रहता है। इन्द्रियातीत चेतना में रहने वाला साधक आत्म शांति का अनुभव करता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ वस्ति नियमन ही नहीं केवल दैहिक भोग से विरमण ही नहीं, उसकी पूर्णता ब्रह्म-आत्मा में रमण करने से होती । ब्रह्मचर्य की साधना दुष्कर है। श्रावक को स्वदार संतोष व्रत का पालन करना चाहिए। वर्तमान युग में विवाह-पूर्व संबंध का प्रचलन बढ़ रहा है। विवाह पूर्व पूर्णतय अनुचित है इससे बचना चाहिए। व्यक्ति इंद्रियों का संयम रखें।




