सुरेंद्र मुनोत, ऐसोसिएट एडिटर
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कोबा, गांधीनगर (गुजरात), आचार्यश्री भिक्षु जन्म त्रिशताब्दी वर्ष के अंतर्गत रविवार तदनुसार आश्विन शुक्ला त्रयोदशी जो भिक्षु स्वामी की तिथि के रूप में जानी जाती है। इस संदर्भ में रविवार को जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘वीर भिक्षु समवसरण’ में उपस्थित जनता को ‘दान एक विश्लेषण: आचार्य भिक्षु की दृष्टि में’ इस विषय पर पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि आयारो आगम में बताया गया है कि दुनिया में कुछ महान वीर पुरुष होते हैं। वे विशेष पराक्रम करने वाले होते हैं और संयम की साधना में प्रयत्नशील हो जाते हैं। अहिंसा, संयम, तप की साधना के लिए भी शूरवीरता की आवश्यकता हो सकती है। अहिंसा के साथ अभय हो, संयम के साथ निष्ठा हो और तपस्या के प्रति आकर्षण हो और फिर पराक्रम होता है तो आदमी अध्यात्म की दृष्टि से बहुत ऊंचा पहुंच सकता है। एक आध्यात्मिकता का मार्ग है तो दूसरा भौतिकता का मार्ग है। इसमें दान एक ऐसा विषय है, जिसे आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में भी देख सकते हैं और सामाजिकता, लौकिकता, दया, अनुकंपा के रूप में भी देखा जा सकता है। वर्तमान में आचार्यश्री भिक्षु का जन्म त्रिशताब्दी वर्ष चल रहा है। आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी उनका जन्म दिवस है। आचार्यश्री भिक्षु के जन्म का तीन सौवां वर्ष चल रहा है, जिसे भिक्षु चेतना वर्ष नाम दिया गया है।आचार्यश्री भिक्षु एक मनीषी संत पुरुष थे। दान एक ऐसा विषय है, जो काफी लोकप्रिय है। दान पर विश्लेषण भी हुआ है। सामान्यतया दान का अर्थ होता है दूसरे को कुछ देना। देना दान होता है। अपना त्याग कर दूसरे को दे देना दान होता है। आगम साहित्य में दान के दस प्रकार बताए गए हैं। संक्षेप में दान को विश्लेषित करने से तीन प्रकार बनते हैं- लौकिक दान, लोकोत्तर दान और ग्रहणीय दान। आध्यात्मिक संदर्भ में एक शुद्ध और साधनाशील साधु को कोई गृहस्थ उसके नियमानुकूल भोजन, वस्त्रादि दान करता है, इसे धर्म दान कहा जाता है। इसे संयति दान भी कहा जाता है। इसे लोकोत्तर दान भी माना जा सकता है। एक साधु किसी गृहस्थ को धार्मिक ज्ञान का दान देता है, शास्त्रों की वाणी समझाता है और उसे पाप से मुक्त कराकर सन्मार्ग पर लाता है, यह ज्ञान देना भी लोकोत्तर दान है। एक आदमी संसार के प्राणियों को नहीं मारने का त्याग कर अभय का दान देता है, वह अभय दान है। संयति दान, ज्ञान दान और अभय दान तीनों ही धर्म दान अर्थात् लोकोत्तर दान होता है।किसी भूखे, प्यासे, निराश्रित को रोटी, पानी, मकान, वस्त्र आदि देता है, यह दया और अनुकंपा से दान दिया जाता है, वह अनुकंपा दान है। इससे दान देने वाले को शारीरिक सुख प्राप्त हो जाता है। इसलिए इसे लौकिक दान कहा जाता है। जिस दान से किसी को कष्ट दिया जा सके, वह ग्रहणीय दान होता है। इस प्रकार जिस दान से आत्मा का कल्याण हो, वह लोकोत्तर दान, जिस दान से शरीर को सुख प्राप्त हो, वह लौकिक दान और जिससे किसी को कष्ट हो वह ग्रहणीय दान होता है। ग्रहणीय दान का त्याग करने का प्रयास करना चाहिए। लौकिक दान का भी सामाजिक संदर्भ हो सकता है।आचार्यश्री के मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीप्रमुखाजी ने जनता को उद्बोधित किया। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त श्रीमती दीपिका बागरेचा ने अपनी अभिव्यक्ति दी। ज्ञानशाला ओर्चिड ग्रीन के ज्ञानार्थियों ने अपनी प्रस्तुति दी। आचार्यश्री ने बच्चों को मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह के अंतर्गत रविवार को नशामुक्ति दिवस का आयोजन किया गया। इसके साथ ही अणुव्रत लेखक मंच सम्मेलन का भी आयोजन था। इस संदर्भ में बिहार कैडेर के एडीजी श्री अमित लोढ़ा ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। नशामुक्ति दिवस के संदर्भ मंे युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित जनता को नशे से मुक्त रहने की पावन प्रेरणा प्रदान की। अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी के महामंत्री श्री मनोज सिंघवी, निवर्तमान अध्यक्ष श्री अविनाश नाहर ने अपनी अभिव्यक्ति दी। इस दौरान अणुव्रत लेखक मंच की ओर से वर्ष 2025 का अणुव्रत लेखक पुरस्कार पद्मश्री श्री रघुबीर चौधरी को दिया गया। इनके प्रशस्ति पत्र का वाचन अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी की उपाध्यक्ष श्रीमती कुसुम लूणिया ने किया। श्री रघुबीर चौधरी ने अपने कृतज्ञ भाव अभिव्यक्त किए। आचार्यश्री ने उन्हें मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। अणुव्रत लेखक मंच सम्मेलन के संयोजक श्री जिनेन्द्र कोठारी ने भी अपनी अभिव्यक्ति दी।