Surendra munot, Associate editor all india (west bengal)
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कोबा, गांधीनगर (गुजरात),जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान देदीप्यमान महासूर्य, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगलवार को ‘वीर भिक्षु समवसरण’ से समुपस्थित श्रद्धालुओं को आगमवाणी के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि हमारी दुनिया में जन्म भी होता है, मृत्यु भी होती है, बुढ़ापा आता है, बीमारियां भी आती हैं। प्रश्न हो सकता है कि इन स्थितियों को प्राणी क्यों प्राप्त होता है? शास्त्र में इसका उत्तर प्रदान करते हुए कहा गया है कि जन्म-मृत्यु, बुढ़ापा और बीमारी की स्थिति आने का कारण मोह नाम का तत्त्व होता है। यह मोह नाम का तत्त्व आत्मा के साथ जुड़ जाता है तो आत्मा शरीर में आती है और शरीर में आने के लिए उसे जन्म भी लेना पड़ता है, फिर बुढ़ापा, बीमारी और फिर कभी मृत्यु को भी प्राप्त होती है। मोह का बहुत बड़ा परिवार है। इसके कुल 28 सदस्य बताए गए हैं। मोह चेतना को मूढ़ बनाने वाला होता है, चेतना को विकृत बनाने वाला होता है। प्रकृति में रहने वाली आत्मा को विकृति में ले जाने वाला मोहनीय कर्म ही होता है। अहंकार, ममता, मोह, गुस्सा आदि सभी मोहनीय कर्म के प्रभाव के कारण होता है। इन व्यवहारों से आत्मा को मोहनीय कर्म का बंध होता रहता है। बंध का जब उदय में आता है तो जीव एक योनि से दूसरी योनि अथवा एक ही योनि में बार-बार जन्म-मरण करता रहता है।आत्मा को शाश्वत कहा गया है, परन्तु आत्मा का पर्याय परिवर्तन होता रहता है। आज जो मनुष्य हैं वे अतीत में देवता के रूप में, कोई नरक, कोई तिर्यंच तो कोई मनुष्य से ही मनुष्य बना है। इस प्रकार मोह के कारण ही जन्म-मरण की प्राप्ति होती रहती है। जन्म-मरण को दुःख बताया गया है। इसके साथ बुढ़ापा और बीमारी भी दुःख बताए गए हैं। जीवन मिला है तो उसे कैसे जीना इसका ध्यान रखने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को अपने जीवन को अच्छा बनाने का प्रयास करना चाहिए।जीवन को अच्छा बनाने के लिए आदमी को मोह को कम करने का प्रयास चाहिए। उसके आदमी को सर्वप्रथम गुस्से को छोड़ने का प्रयास करना चाहिए। अहंकार, ममता, राग, द्वेष आदि को भी छोड़ने का प्रयास होना चाहिए। लोभ को भी जहां तक संभव हो सके, कम करने का प्रयास होना चाहिए। इन सभी को कम करते-करते कभी ये हमेशा के समाप्त हो जाएं तो फिर आत्मा का कल्याण हो जाएगा और जीव जन्म-मरण की प्रक्रिया से मुक्त भी हो सकता है।अध्यात्म की साधना मुख्यतया मोह को क्षीण करने की साधना होती है। साधना करते-करते कभी चौदहवां गुणस्थान प्राप्त हो जाए और सम्पूर्ण संवर की स्थिति बन जाए तो फिर मोक्षश्री का वरण हो जी जाता है। इसलिए मोह को ही पुनर्जन्म का आधारभूत तत्त्व कहा जाता है। जैन दर्शन पुनर्जन्मवाद को मानने वाला है। पुनर्जन्म, पाप-पुण्य, मोक्ष आदि न हो तो फिर अध्यात्म की साधना की सार्थकता ही नहीं सिद्ध हो सकती।इसलिए जन्म-मरण से मुक्ति के लिए आदमी को धर्म-अध्यात्म की साधना करने का प्रयास होना चाहिए। पर्युषण महापर्व आने वाला है। 20 अगस्त से यह महापर्व प्रारम्भ होने वाला है। यह साधना का विशेष अवसर है। सामायिक, प्रतिक्रमण, तपस्या आदि के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण समय है। इसका आठ दिन बहुत विशेष होता है। इसमें जितना संभव हो सके, धर्मराधना, तपाराधना, ज्ञानाराधना का प्रयास होना चाहिए। देश-विदेश में रहने वाले लोग इस अवसर का अच्छा लाभ उठाएं। इसमें उपासक-उपासिकाओं का कितना वर्ग अलग-अलग स्थानों पर पर्युषण आराधना को जाते हैं।आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन के उपरान्त तेरापंथ प्रबोध के आख्यान से सभी को लाभान्वित किया। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त साध्वीवर्याजी ने उपस्थित जनता को उद्बोधित किया। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में अनेकानेक तपस्वियों ने अपनी-अपनी तपस्या का श्रीमुख से प्रत्याख्यान किया। तेरापंथी सभा-अहमदाबाद के चिकित्सा सहप्रभारी श्री राकेश सिपाणी ने चिकित्सा संबंधी अपनी अभिव्यक्ति दी। पंजाब से संघबद्ध रूप में पहुंचे श्रद्धालुओं ने केशरिया पगड़ी (पग) पहने हुए आचार्यश्री के समक्ष उपस्थित होकर वन्दन करते हुए अपनी अर्ज रखी तो बड़ा ही अनुपम दृश्य उत्पन्न हो गया। आचार्यश्री ने सभी को मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।