🌸 राग के समान कोई दुःख नहीं व त्याग के समान कोई सुख नहीं : शांतिदूत महाश्रमण 🌸
-सह्याद्रि पर्वतमाला पर तेरापंथ विश्व भारती की स्थापना कर गतिमान हुए ज्योतिचरण
-14 कि.मी. का विहार कर आचार्यश्री पहुंचे शिवकर स्थित राकेश जैन माध्यमिक विद्यामन्दिर
-अखण्ड परिव्राजक का सान्ध्यकालीन विहार, पहुंचे छत्रपति शिवाजी महाराज विद्यालय पलस्पे
27.02.2024, मंगलवार, शिवकर, न्यू पनवेल, रायगड (महाराष्ट्र) : मायानगरी मुम्बई के बाहरी भाग में पनवेल क्षेत्र के अंतर्गत स्थित सह्याद्रि पर्वतमाला पर जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान देदीप्यमान अनुशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने तेरापंथ विश्व भारती की स्थापना कर मंगलवार को प्रातःकाल की मंगल बेला में प्रस्थान किया। आसमान का सूर्य इन पहाड़ों की ओट से निकलकर आगे बढ़ रहा था तो दूसरी ओर अध्यात्म जगत के महासूर्य पहाड़ों से उतरते हुए पुनः समतल भाग की ओर आध्यात्मिक ज्ञान की आभा को प्रसारित करने के लिए गतिमान हुए। कल जिस विकट मार्ग से आरोहण हुआ था, आज उन्हीं विकट परिस्थितियों अवरोहण भी हो रहा था। पहाड़ों से उतर कर आचार्यश्री पुनः शहरी एरिया में पहुंचे। कुल लगभग 14 किलोमीटर का विहार कर आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के संग शिवकर में स्थित राकेश जैन माध्यमिक विद्या मन्दिर में पधारे। जहां श्रद्धालुओं ने आचार्यश्री का भावभीना स्वागत किया। विद्यालय परिसर में आयोजित मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में उपस्थित जनता को शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि दुनिया में त्याग का बहुत बड़ा महत्त्व होता है। किसी के पास अच्छे वस्त्र, आभूषण, आधुनिक संसाधन आदि का अभाव हो और वह उस कारण से उनका उपयोग नहीं कर पा रहा है तो वह त्याग की बात नहीं होती है। जिसके पार सारे भौतिक संसाधनों की उपलब्धता, अच्छे वस्त्र, आभूषण आदि-आदि पदार्थों का भोग करने की क्षमता हो और वह अनासक्त भाव से उनको छोड़ता है तो वह त्याग कहलाता है। पदार्थ, संबंध, भौतिक संसाधानों आदि-आदि भोग के मार्ग का त्याग अगर अच्छे रूप में हो जाए तो आदमी मोक्ष प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ सकता है। कहा गया कि राग के समान इस संसार में कोई दुःख नहीं और त्याग के समान कोई सुख नहीं होता। त्याग बाह्य और आंतरिक दोनों रूपों में होता है। कोई दिखावे के लिए वस्त्र, आभूषण आदि का परित्याग कर दे, किन्तु मन उन्हीं में रमा रहे तो वह त्याग की बात नहीं होती। आंतरिक भावों से भी उनका त्याग हो, मन में वैराग्य की भावना हो, उनसे मुक्त होने की भावना का विकास हो तो त्याग की बात हो सकती है। विवशता अथवा परवशता में नहीं सववशता में किया गया त्याग वास्तविक त्याग होता है। कितने-कितने लोग छोटी उम्र में ही घर-परिवार, धन-संपदा का परित्याग कर साधु बन जाते हैं। सब कुछ की उपलब्धता होने पर भी वैराग्य भाव से उन सभी को छोड़कर साधु बन जाते हैं। परम पूज्य आचार्यश्री तुलसी जीवन के बारहवें वर्ष व आचार्यश्री महाप्रज्ञजी जीवन के ग्यारहवें वर्ष में ही साधुता स्वीकार कर ली थी। त्याग-संयम से युक्त साधु राजा से भी बड़ा होता है। त्याग, संयम, तप, साधना में रत रहने वाले साधुओं का जीवन मानों धन्य हो जाता है। गृहस्थ आदमी भी अपने जीवन में कुछ न कुछ चीजों का त्याग करने का प्रयास करे। न हो तो भोजन करने के उपरान्त अगले तीन घंटे तक कुछ भी न खाने का त्याग आदि-आदि रूपों में त्याग किए जा सकते हैं। इसके माध्यम से अपनी आत्मा के कलश में धर्म का संचय करने का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने कहा कि आज शिवकर आए हैं। विद्यार्थियों में ज्ञान के साथ-साथ अच्छे संस्कारों का विकास होता रहे। मंगल प्रवचन के कुछ ही घंटों के पश्चात अखण्ड परिव्राजक आचार्यश्री महाश्रमणजी 14 किलोमीटर की दुर्गम यात्रा करने के उपरान्त भी जनकल्याण की भावना से सान्ध्यकालीन विहार को गतिमान हुए। लगभग चार किलोमीटर का विहार कर पनवेल तहसील के अंतर्गत स्थित पलस्पे में स्थित छत्रपति शिवाजी महाराज विद्यालय में पधारे। आचार्यश्री का रात्रिकालीन प्रवास यहीं हुआ।