🌸 मन को बनाएं सुमन : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण 🌸
-वाशीवासियों को आचार्यश्री ने चिंतन प्रशस्त बनाने को किया अभिप्रेरित
-तेरापंथ किशोर मण्डल ने दी अपनी प्रस्तुति, आचार्यश्री ने कराए संकल्प
17.02.2024, शनिवार, वाशी, नवी मुम्बई (महाराष्ट्र) :
वाशी में भव्य 160वें मर्यादा महोत्सव की सम्पन्नता के उपरान्त शनिवार को मर्यादा समवसरण में उपस्थित जनता को जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि मानव के पास शरीर, वाणी और मन भी होता है। इन्द्रियां भी हैं, आदमी श्वास-उच्छवास भी करता है। अनेक तत्त्व मानव के पास उपलब्ध हैं। शरीर से हलन-चलन, खाना-पीना, पढ़ना-लिखना आदि अनेक कार्य करते हैं। वाणी से बोलते हैं, भाषण देते हैं, बातचीत करते हैं, स्वाध्याय कर लेते हैं, पढ़ते हैं, जप कर लेते हैं। वाणी भाषा के संदर्भ में हमारे काम आती है।
मन से आदमी चिंतन करता है, स्मृति करता है, कल्पनाएं करता है और मन में कभी प्रसन्नता, कभी मन विशादग्रस्त भी बन जाता है। मन में संकल्प और विकल्प भी उठते हैं। मन भावों को ग्रहण करने वाला है। मन भावों का ग्राहक होता है। इसलिए मन और भाव का अपना रिश्ता होता है। मन सुमन भी बन सकता है और वह दुर्मन भी बन सकता है। जब मन में शिव संकल्प होते हैं, कल्याणकारी विचार होते हैं, सुन्दर कल्पना होती है, अच्छी स्मृति होती है, अच्छे भाव मन के कैनवाश पर उतरते हैं तो यह मन सुमन हो जाता है। गलत विचार, खराब चिंतन आदि हों तो मन दुर्मन भी बन जाता है।
मन से आदमी सोचता है, स्मृति आदि करता है। मन से कैसे सोचा जाए, कैसे कल्पना की जाए और कैसे स्मृति की जाए, यह एक प्रश्न हो सकता है। सीधा उत्तर हो सकता है कि सोचें तो अच्छा सोचें। स्मृतियां करें तो अच्छी स्मृतियां करें, कल्पनाएं अच्छी करें। सम्यक् सोचना, सम्यक् स्मृति करना और सम्यक् कल्पना करना मन को सुमन बनाने में सहायक बन सकता है।
ज्यादा पाप मन वाला प्राणी ही कर सकता है और ज्यादा भी मन वाला ही प्राणी कर सकता है। जो प्राणी असंज्ञी हैं, जिनमंे मन नहीं होता, वे न तो ज्यादा पाप कर सकते हैं और न ही ज्यादा धर्म कर सकते हैं। कोई भी असंज्ञी प्राणी मरकर सातवीं नरक में नहीं जा सकता और तो क्या वह दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें और छठे नरक में भी नहीं जा सकता। वह ज्यादा से ज्यादा पहले ही नरक में जा सकता है। इसी प्रकार कोई भी असंज्ञी प्राणी मरकर अनुत्तर विमान में जाकर पैदा नहीं हो सकता। इस प्रकार कोई भी असंज्ञी प्राणी इतना पुण्य अर्जित नहीं कर सकता कि अनुत्तर विमान में जाकर पैदा हो सके और कोई भी असंज्ञी प्राणी इतना पाप नहीं कर सकता कि मरकर सातवें नरक में जाए। ऐसा केवल मन वाले प्राणी ही सर्वोच्च स्थिति को भी प्राप्त कर सकता है और अधोगति में भी जा सकता है।
मनुष्य मन वाला प्राणी है। इसलिए उसे अपने विचार को सुन्दर बनाने का प्रयास करना चाहिए। वह यथार्थपरक चिंतन करे, विचारों को उन्नत बनाने का प्रयास करे। सोचने के समय क्रोध, लोभ, व मोह का भाव न हो। यदि वह बुरे भावों से मुक्त रहकर चिंतन करता है तो उसका चिंतन प्रशस्त हो सकता है और उसका मन भी सुमन बन सकता है।
आचार्यश्री ने आगे कहा कि कल हमारा मर्यादा महोत्सव का त्रिदिवसीय कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। कितने-कितने लोग यहां प्रत्यक्ष रूप से जुड़े तो कितने-कितने लोग संचार माध्यमों से अप्रत्यक्ष में भी जुड़े होंगे। प्रत्यक्ष और परोक्ष का दोनों का अपना अस्तित्व होता है। जीवन को प्रशस्त बनाने में मर्यादाएं व व्यवस्थाएं कितनी सहायक बनती हैं। मर्यादाओं से आदमी का जीवन सुरक्षित रह सकता है। आदमी मर्यादा-व्यवस्था की रक्षा करे तो मर्यादा-व्यवस्था आदमी की रक्षा कर सकेंगी।
आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त तेरापंथ किशोर मण्डल-वाशी के किशोरों ने आचार्यश्री के समक्ष अपनी प्रस्तुति दी तो आचार्यश्री ने उन्हें आशीष प्रदान करते हुए पांच वर्ष अथवा भावना के अनुसार जीवन भर के लिए ड्रग्स व ड्रिंक्स का त्याग कराया।