
प्रवचन 25-09-23
तप करो, कर्म कलंक दूर करों- आचार्य विशुद्ध सागर
दिगम्बर जैनाचार्य श्री विशुद्धसागर जी महाराज ने ऋषभ सभागार मे श्रावक संयम साधना शिविर के मध्य धर्मसभा में मंगल प्रवचन करते हुए कहा कि-” तप वही श्रेष्ठ है, जो कर्मक्षय के लिए तपा जाए। आत्म भावना पूर्वक विविध प्रकार के काय-कलेश समता पूर्वक सहन करना ‘तप’ है। विषय-कषायों का निग्रह करते हुए, ध्यान- अध्ययन के साथ, आत्म-भावनापूर्वक साधना करना ही ‘तप’ है। तप से कर्म-निर्जरा होती है। इच्छाओं का शमन, आकांक्षाओं का अभाव ही ‘तप’ है। ज्ञान आत्म-बोधक है, तप आत्मशोधक है।
अनशन, अवमोदर्य, वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शैयाशन, काय- क्लेश ये बाह्य तप हैं और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान ये अंतरंग तप हैं। सम्यग्दृष्टि वीतरागी- साधुओं के समीचीनं-तप से कर्म शय होता है तथा शाश्वत-शांति का पथ प्रशस्त होता है।
उत्साह पूर्वक तप करना चाहिए। स्वस्थ अवस्था में किया गया तप शीघ्र ही ‘सिद्धि’ प्रदान करता है। शरीर स्वस्थ है, इन्द्रियाँ स्वस्थ हैं, तब-तक साधना कर लो, नहीं तो अस्वस्थ अवस्था में स्वयं ही नहीं संभलोगे तो साधना कैसे करोगे ? कलिकाल में सर्व- श्रेष्ठ कोई तप है, तो वह ‘स्वाध्याय’ है। स्वर्ण अग्नि में तपाने पर उसकी किट्टिमा भिन्न हो जाती है, स्वर्ण चमकने लगता है, इसी प्रकार आत्मा तप के प्रभाव से कर्म-कलंक से भिन्न होकर ‘शुद्ध’ हो जाती है।
डरो मत, डराओ मत। तप स्वीकार करो, कर्म कलंक हरो। तप सिद्धि का साधन है। तप से प्रशंसा और प्रसिद्धि मिलती है। तप में निराकुलता है और निराकुलता ही आनन्द है। शुद्धि चाहिए, तो निशुद्धि बढ़ाओ। विशुद्धि से ही आत्म-शुद्धि सम्भव है।
शोध चाहिए तो बोध करो, बोध के बिना शोध नहीं। बोध, बोधी से ही शोध और समाधि सम्भव है। तपोगे, तभी दमकोगे। चमकना है तो तपना सीखो। तप करो, कर्म हरो, सिद्धालय के कंत बनो। जितना तपोगे, उतना चमकोगे । आत्मरुचि करो, समीचीन तप करो।
सभा का संचालन पंडित श्रेयांस जैन ने किया।
वरदान जैन मीडिया प्रभारी














