

भगवान के लिए बहाए गए आंसू कभी व्यर्थ नही जाते
भगवान को पाने के लिए जिनकी आंखों से अश्रुपात होता है, उन आंसुओं की एक-एक बूंद की किसी चीज से तुलना नहीं की जा सकती है ।
अपने आराध्य के प्रति प्रेम की मात्रा जब हृदय में बढ़ जाती है, तब वह संभाले नहीं संभलती है ।
जिस समय श्रीचैतन्य महाप्रभु श्रीकृष्ण के विरह में उन्मत्त होकर दोनों भुजाएं उठाकर रोने और चीखने लगते थे कि
कांहां जाऊं कांहां पाऊं मोर प्राणधन, कांहां वृजेन्द्रनन्दन’ (अर्थात् कहां जाऊं, अपने प्राणधन कृष्ण को कहां पाऊँ, कहां है मेरा व्रजेन्द्रनंदन); उस समय पत्थर का हृदय भी पिघल जाता था । उनकी आंखों से ऐसा अश्रुप्रवाह चलता था, मानो पिचकारी छूट रही हो । 18 वर्षों तक.महाप्रभु जी ने नेत्रों से इतनी जलधारा बहाई कि जगन्नाथ मन्दिर में गरुड़-स्तम्भ के पास का कुण्ड, जहां खड़े होकर वे दर्शन करते थे,
अश्रुजल से भर जाता था । अंत में प्रेम से कृष्ण-नाम लेते हुए वे तदाकार हो गए ।
भक्ति में आंसुओं का बड़ा महत्व है । भगवान का सच्चा भक्त उनको पाकर उतना संतुष्ट नहीं होता, जितना उनके वियोग में आंसू बहा कर होता है—
जिस पर तुम हो रीझते, क्या देते यदुबीर ।
रोना-धोना सिसकना, आहों की जागीर ।।
ऐसे भक्तों के लिए भगवान भी भला कैसे निष्ठुर हो सकते हैं? वे तो अपने प्रेमियों की आंखों के आंसु देखने के लिए उसके पास में ही छिपे-छिपे रहते हैं; परंतु अपने होने का अहसास वे उसे होने नहीं देते हैं ।
दूसरी बात भगवान को ‘शरणागत भाव’ ही प्यारा है । मनुष्य यदि समर्पित हृदय से उन करुणासागर भगवान से केवल एक बार कह दे कि ‘हे नाथ ! मैं तुम्हारा हूँ’—वह भगवान को बहुत प्यारा लगता है । जो मनुष्य संसार से विमुख होकर भगवान के सिवाय कुछ भी नहीं चाहता है, उसके उद्धार की सम्पूर्ण जिम्मेदारी भगवान पर ही आ जाती है ।
भगवान स्वयं उसके योगक्षेम का वहन करते हैं । केवट बन कर उसकी नैया को भीषण संसार-सागर से पार करा कर सुरक्षित अपने धाम में पहुंचा देते हैं । उसे किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है ।
इस बात का आश्वासन भगवान ने गीता में दिया है—
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्




