

आज के इस प्रैक्टिकल युग में सब दिमाग की सुनते हैं जैसा दिमाग चाहता है वैसा ही करते हैं। दिमाग के अनुसार ही चलते हैं। दिल, दिल तो बेचारा एक कोने में दुबक कर बैठा रहता है!
बस उसी पर कुछ पंक्तियां…… *कशमकश*
दो अलग तेहजीब के ख्यालों का किस्सा है,
सहचर हुआ करते थे कभी,
पर अब नहीं है,
अलग-अलग है राहें,
पर न जाने अनजाने में ही राहें फिर मिल गई,
दिल और दिमाग की एक मोड़ पर मुलाकात हो गई,
दिल अपनी ही रवानी में बह चला था,
दिमाग को गुणा भाग के संचालन से फुर्सत ही कहाँ थी,
इत्तेफाक कहिए या फिर नियति,
मिलना था दोनों को,
यूं ही मिल गए,
दोनों धीरे-धीरे करीब हो साथ-साथ चलने लगे,
दिल अब भी अपनी ही कशिश में खोया था,
जोड़-तोड़ की कर क्रीड़ा,
दिमाग दिल को अपने सांचे में ढ़ालने लगा,
नासमझ दिल बेचारा,
निभाने के अनुराग में बहने लगा,
दिमाग ने अपने मिजाज से,
दिल को बड़ी नर्मियत से तोड़ मरोड़ अपनी प्रभाव में चलाने लगा,
दिल को कहां इन पेचीदा गणित का बोध था,
दिमाग के पिंजर में कैद हो गया,
यूँ दिल को हसरतें में उलझा,
दिमाग कोई और ही नयी गुणा भाग की कहानी बुनने लगा,
दिमाग की इस बेरुखी को कहां दिल समझ पाया,
दिल हर धड़कन में दिमाग को तलाशता रहा,
दिमाग ने अपनी सहूलियत से कभी करीबियत,
कभी फासले के फैसला कर दिए,
दिल ने कोशिश तो बहुत की,
पर क्या करे,
पिंजर के पंछी सा उड़ना भूल गया,
और दिमाग के साथ का इंतजार ही करता रह गया….
और दिमाग के साथ का इंतजार ही करता रह गया……
इंतजार ही करता रह गया…..
रश्मि सुराणा कोलकाता




