❤️।।#गुस्ताख़ी माफ़।।❤️
“#ममरी ओर जलेबी की बहार”
“भारत देश” में “त्यौहारो” की अपनी “संस्कृति” हैं हर क्षेत्र में “त्यौहार” या “उत्सव” उस “क्षेत्र” की अपनी “शैली” या “पहचान” रखती हैं।
“वागड़” अंचल” भी हर “त्यौहार” पर अपनी “शैली” के लिए जाना जाता हैं जिसमे अनेक “प्राचीन परम्पराएं” आज भी विद्यमान हैं।
“जैन पर्यूषण” पर्व के बाद आने वाले “दो दिवसीय” “रथोत्सव” जिन्हें “रवाड़ी” भी कहा जाता है जिसमे “कलात्मक” “काष्ठ प्रतिमाओं” से सुसज्जित “रथ” निकाले जाते है, बांसवाड़ा, परतापुर, पीठ(सीमलवाड़ा),डूंगरपुर, आसपुर,गलियाकोट सहित अनेक स्थानों पर इनकी शोभायात्रा निकलती है मगर “सागवाड़ा” में “अनूठी” परम्पराओ के बीच यह उत्सव “दो दिनों तक मनाया जाता है जिसमे “रथों का मिलन” व “सास-बहू” की परंपरा बेहद “अनूठी” है जिसमें “काष्ठ से बने” भारी “रथों” को कंधों” पर उठाया जाता है।
“वैसे” रथोत्सव का यह पर्व सदियों से चला आ रहा है जब “वाहनो की संख्या कम थी तब यहां “पैदल”चलकर लोग एक दिन पूर्व ही आ जाते थे ओर “भोजन व विश्राम” यहीं करते थे।
“भाद्रपद द्वितीया” के “अल सुबह” लगभग 5 बजे “सास-बहू” की परंपरा में “दो रथों” को लेकर “दौड़ने की रस्म” वहीं रात्रि 8 बजे “दो रथों” का “मिलन” “बरबस” ही लोगो को अपनी ओर “खींच” लेता हैं।
“काष्ठ से बने भारी भरकम “रथ” देखकर हर कोई “हैरत” हो जाता है “दो मंजिले इन रथों में कारीगरी बेहद अद्भुद है जिसमे ऐरावत हाथी, घोड़े, ढोल व मृदंग बजाते युवक,राजा का दरबार के साथ काष्ठ की विभिन्न कलाकृतियां “वागड़ अंचल” की “समृद्धि” का “दर्शन” कराती हैं।
“पर्युषण पर्व” की समाप्ति के बाद शुभ मुहूर्त में इन रथों को “भंडार गृह” से बाहर निकाला जाता है ओर “स्वर्ण-रजत” आभूषणों के साथ “श्रीफलो” से इनका “श्रृंगार” किया जाता है जिनके दर्शनों के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंच अपनी मनोकामनाएं पूर्ण कर “मिन्नत” पूरी करते है।
“वैसे” रथोत्सव मेले में “घरेलू, साज-सज्जा से लेकर हर प्रकार की सामग्री मौजूद रहती है मग़र “वागड़ अंचल” के “रवाड़ी” मेले का आनंद “तब” ही “हांसिल” होता है “जब” “सौंधी खुशबुओं” से भरी “ममरी व जलेबी” “खा” न लें”………✍️
छगनलाल सागवाड़ा