

विदुरानि के छीलके भी खा गये …*
(सबसे उचि प्रेम सगाई)
भगवान श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध को बचाने के लिए पांडवों के शांतिदूत बनकर कौरवों की सभा में गए।
वहाँ उन्होंने प्रस्ताव रखा पांडवों को ५ गाँव प्रदान करने का, परंतु दुर्योधन नहीं माना बल्कि उद्दंडता करने लगा तो प्रभु भी लीलाधारी हैं, उसे विराट रूप के तेज़ से दिखाया कि वे कौन हैं और फिर दुर्योधन ने जब प्रभु से आग्रह किया कि हे श्रीकृष्ण ! आओ भोजन कर लो तब प्रभु ने भोजन करने की तीनों परिस्थिति (भाव,प्रभाव,अभाव) बताकर और उस भोजन को अस्वीकार कर बरसों से इंतज़ार कर रहे अपने चाचा-चाची श्री विदुर और विदुरानी के घर जाने का निश्चय किया।
जिस दिन (प्रभु का प्राकट्य होने के बाद) श्री विदुर विदुरानी ने ठाकुर का प्रथम बार दर्शन किया था उसी दिन से उनकी तमन्ना थी कि एक दिन वे घर पधारें।
आज मानो उन दोनों की जीवन भर की तपस्या का फल देने प्रभु दौड़ पड़े हैं।
सुबह-सुबह का समय है , श्री विदुर जी महाराज , जिन्होंने अपना जीवन निकाल दिया प्रभु के घर आने के इंतज़ार में , आज घर पर नहीं हैं जबकि प्रभु आने वाले हैं।
प्रभु ने दरवाज़ा खटखटाकर आवाज़ लगायी : काकी ! ओ काकी !
(देखिए तो उनकी करुणा निर्गुण ब्रह्म आज अपने भक्तों के साथ स्वयं रिश्ते जोड़ रहा है और देखिए श्री विदुरानी जीं का सौभाग्य प्रभु स्वयं द्वार खड़े होकर बाट देख रहे हैं कि द्वार खुले तो मैं भीतर जाऊँ , वो श्री कृष्ण जिनके धाम में अनेक लोकों से आने वाले देवतागण भी दर्शन का इंतज़ार करते करते हार जाते हैं,आज वे श्रीकृष्ण द्वार खड़े हैं विदुरानी के )
श्रीमती विदुरानी जी प्रभु की आवाज़ सुनकर दौड़ी और क्या देखा कि ७५ वर्ष आयु के वो श्रीकृष्ण आज भी १६ वर्ष के सुकुमार किशोर दिख रहे हैं । कितना सुंदर रूप है उनका :
घुंघराले बाल , कानो में कुंडल हाथों में बाजुबंद, गले में हार, मस्तक पर स्वर्णकांति मुकुट,मुख पर मधुर मुस्कान,चरणों में पैजानिया,पीला पीताम्बर ओढ़े श्याम सुंदर आज मेरे द्वार पर खड़े हैं।
माँ ऊँगली पकड़ के प्रभु को अंदर ले आयी।इन्हें कहाँ बिठाऊँ,क्या भोग लगाऊँ,या बैठ के अपने मन की कह लूँ और उनकी सुन लूँ।
देवलोक करुणा भरी दृष्टि से सब देख रहा है और श्री विदुर-विदुरानी के सौभाग्य की सराहना करते थक नहीं रहा।
विदुरानी बोली : लाला ! मैं रोज़-रोज़ तुम्हारा इंतज़ार करती रही,नित्य ताज़ा माखन निकलती रही, तुम्हारी बाट निहारती रही, पलकें बिछाएँ मैं और तुम्हारे चाचा नित्य द्वार पर खड़े होकर देखते रहे कि आज तो वे द्वारिकाधीश अवश्य आएँगे , परंतु तुम नहीं आए न।
आज तो मैंने माखन भी नहीं निकाला है और तुम आ भी गए , क्या खिलाऊँगी मैं अपने जिगर को।
प्रभु बोले : काकी ! घर में जो है ले आओ , इतना क्यों सोचती हो।
विदुरानी जी गयीं और घर में केवल केले थे भोग लगाने को वही ठाकुर को खिलाने लगे , इतनी सुध बिसार चुकी है कि मूल भाग को छोड़ छिलकों का भोग उन्हें लगा रही है और उन्हें देखिए वे भी प्रेम के पाले पड़कर छिलकों को आनंद से आरोग रहे हैं।
माँ ने तो बैठाने को चौंकी भी उलटी बिछा दी परंतु देखिए उन भक्तवत्सल की सहजता वो उसी चौंकी पर बिना कुछ बोले बैठ गए।
इतने में ही बाज़ार से विदुर जी महाराज पधारे और बोले : कन्हैया ! तुम ! बस उसके बाद तो शब्द ही नहीं आया मुख पर। एक टक निहारते रह गए। मानो निर्धन को जीवन धन मिल गया।
चेतना लौटी तो विदुरानी को बोले: महर उन्हें छिलके क्यों खिला रही हो,हाथ रोकने लगे उनका तो प्रभु ने विदुर जी का हाथ पकड़ लिया और बोले काका ! जो आनंद मुझे छप्पन भोग,छत्तीस व्यंजन और द्वारिका की पाकशाला से बने भोजन में नहीं आता वो आज काकी के छिलके दे रहे हैं , मत रोको इन्हें।
हे भक्त ! कहने का अभिप्राय इतना है कि प्रभु ने इस जीव को आश्वासन दिया हुआ है कि मैं आऊँगा, मैं मिलूँगा !परंतु कब मिलूँगा, कैसे मिलूँगा और कितनी देर के लिए मिलूँगा ये नहीं बताया है।
लेकिन मिलेंगे यह पक्का है…. *राधे राधे....* *जय श्रीकृष्ण...*




