

भगवान महावीर का जीवन चरित्र…सुरेंद्र मुनोत,ऐसोसिएट एडिटर, आल इंडिया,Key Line Times
मध्यप्रदेश,भगवान महावीर कोई ईश्वरीय अवतार नही थें । उनका जन्म ई.स.पूर्व 599 को वैशाली गणतंत्र के कुण्डलपुर नगरी मे राजा सिद्धार्थ और माता त्रिशला के यहा तृतीय संतान के रूप मे चैत्र शुक्ल तेरस को हुआ था । उनके बडे भाई का नाम नंदीवर्धन और बहन का नाम सुदर्शना था । उनका जन्म होते हीं राज्य में धन-धान्य, वैभव आदि मे वृध्दि होने लगी थी इसलिए उनका नाम वर्धमान रखा गया था ।
वर्धमान जन्म से ही मति ज्ञान, श्रृत ज्ञान, अवधि ज्ञान से युक्त थें । बचपन से ही वे निर्भीक एवं साहसी थे । आठ वर्ष की आयु मे धनुर्विद्या, धर्म शास्त्र, राजनीति आदि का ज्ञान अर्जित करने के लिए उन्हे गुरुकुल भेजा गया था । वहां उनके गुरु को उनकी विलक्षण प्रतिभा का ज्ञान हुआ और उन्होंने राजा सिद्धार्थ से बालक वर्धमान को शिक्षा देने मे अपनी असमर्थता दर्शाई थी । बाल्यकाल मे मित्रों के साथ क्रिडा करते समय खेल-खेल मे ही उन्होने एक भयंकर सर्प को नियंत्रित कर लिया था । वे बडे बडे विद्वानों से सहज और नम्रतापूर्वक शास्त्रार्थ कर लेते थे । किशोर अवस्था मे उन्होंने एक मदमस्त हाथी को वश मे कर लिया था इसलिए उनको वीर, अतिवीर, सम्मती आदि नामो से भीं संबोधित किया जाता है ।
युवा अवस्था मे उनका यशोधा नामक सुकन्या से विवाह हुआ था। कालांतर से प्रियदर्शना नाम की एक पुत्री हुई थी । पर उनका मन संसारिक जीवन से विरक्ति की और परिवर्तित होने लगा था । आंतरिक शांति प्राप्त करने के लिये उन्होंने अपने माता-पिता की मृत्यु के पश्चात बडे भाई नंदीवर्धन से आज्ञा लेकर 30 वर्ष की आयु मे संसार से विरक्त होकर राज वैभव, वस्त्र आभूषण आदि का त्याग कर स्वयं केश लुंचन कर स्वयं दिक्षित हुये थे ।
कहते है न,” संग्राम मे विजयी होने से पहले योद्धा को अपने प्राणो की बाजी लगानी पड़ती है ,” इसी प्रकार ” सिध्दी के सिंहासन पर विराजमान होने के लिये नानातित कष्टो से गुजरना पड़ता है ।”
युवा वर्धमान ने भी सन्यास ग्रहण करने के पश्चात 12 वर्ष 5 माह 13 दिन तक कठोर तपस्या की । उस दौरान तथाकथित लोगो ने उन पर डंडे बरसाये; उनके पिछे कुत्ते छोडे ; कानों मे खिल ठोक दिये ; उनके पैरो के बिच लकडिया लगाकर आग जलाई । किट, पतंग, मच्छर आदि ने अनेक डंक दिये । फिर भी वें थंडी, गर्मी, वर्षा की परवाह किये बिना वे शांत, मौन, साधना मे लिन रहें । तत्पश्चात उन्हे ऋजुबालुका नदी के किनारे शाल वृक्ष के निचे वैशाख शुक्ल दशमी के दिन केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। (” केवल ज्ञान अर्थात मनुष्य, देवता, जन्म-मरण, इस संसार तथा अगले पिछले संसार का ज्ञान “) अपनी इंन्द्रियो पर उन्होंने पुर्नत: विजय प्राप्त कर ली थी इस तरह वे जिनेन्द्र बने और वर्धमान से जैनों के 24 वें तिर्थंकर भगवान महावीर कहलाये ।
तथाकथित समाज में पशुबली, जात-पात, भेद-भाव वैदिक कर्मकांड आदि का प्राबल्य बढ गया था । चारो तरफ हिंसा का माहोल बना हुआ था। तब भगवान महावीर ने जनकल्याण के लिये प्रथम तिर्थंकर भगवान ऋषभदेव से चले आ रहे अतिप्राचिन सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य व ब्रम्हचर्य सिद्धांतो पर आधारित जैन धर्म की पुन्ह: स्थापना की ।जनजागरण के लिये वह तत्कालीन सामाजिक अर्धमागधी भाषा मे उपदेश देने लगे ताकी सर्वसाधारण जनता उसे समझ सके । अनेकांतवाद, स्यादवाद, जैसे अद्भुत सिद्धांतो से लोगो को अवगत कराया । दृष्ट, अनपढ, असभ्य, रुढ़िवादी लोग उनका विरोध करते थें परंतु वे उनके दिलों को भी अपने उच्चतम गुणो से समभाव से सहन करके उन्हे अपना बना लेते थे ।
भगवान महावीर का आत्मधर्म जगत की प्रतेक आत्मा के लिये समान था । दुनिया की सभी आत्माये एक सी है इसलिये हम दुसरो के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखे जो हमे स्वंय को पसंद हो यही उनका ‘ जिओ और जीने दो ‘ का सिद्धांत है। उन्होंने स्त्रियों की स्वतंत्रता और समानता पर भी बल दिया था । स्त्रियों को भी नवनिर्माण का अधिकार है इसलिए उन्होंने अपने संघ के द्वार स्त्रियों के लिये भी खुले रखे थे । चंदनबाला उनकी प्रथम महिला शिष्या बनी थी । उनके अनुयायियों की संख्या निरंतर बढती गई ।
भगवान महावीर का 72 वर्ष की आयुमे ई.स.पूर्व 527 मे पावापुरी (बिहार) मे कार्तिक शुक्ल अमावस को निर्वाण हुआ । आज भी जैन धर्मावलंबियो द्वारा इस दिन घर-घर मे दीपक जलाकर दिपावली मनाई जाती है ।
इस तरह भगवान महावीर ने आत्मकल्याण के साथ-साथ जगतकल्याण भी किया। वें स्वयं तरे और औरो को भी तारा । उनके द्वारा दिया गया एक छोटासा संदेश ‘ जिओ और जीने दो ‘ का भीं हम अनुसरण करते है तो हमारा जीवन धन्य हो जायेगा और विश्व की अधिक्तर समस्याये स्वत: ही समाप्त हो जायेंगी ।
” जय जिनेन्द्र 🙏🏻”
नंदिनी जैन गोलछा
वारासिवनी जि. बालाघाट
( मध्यप्रदेश )




