

संत का प्रसाद राजा पीपा, एक धनी राजपूत था। एक बार उसके दिल में ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा हुई। उसने वजीरों को इकट्ठा करके पूछा कि ‘क्या कोई ऐसा महात्मा है जिससे मैं ज्ञान दान ले सकूँ ?’ वजीरों ने कहा–‘महाराज ! इस वक़्त तो जूते गाँठने वाले सन्त गुरु रविदास जी है, जो आपके महल के पास थोड़ी दूरी पर ही रहते है।’ अब राजा मन में सोचने लगा कि ‘क्या करूँ ? परमार्थ भी जरूरी है। अगर खुल्लम-खुल्ला जाता हूँ तो लोग तरह-तरह की बातें करेंगे कि राजपूत राजा होकर एक निम्न जाति के व्यक्ति के घर में जाता है।’ फिर राजा ने सोचा कि ‘यदि सन्त गुरु रविदास उन्हें अकेले मिले तो मैं उनसे नाम ले लूँ।’ एक दिन ऐसा मौका आया कि कोई त्यौहार था और सारी प्रजा गंगा स्नान के लिए गई हुई थी। इधर राजा अकेला था और सन्त गुरु रविदास जी का मौहल्ला भी सूना था। कोई अपने घर पर नहीं था। राजा छुपते छुपाते सन्त गुरु रविदास जी के घर गया और प्रार्थना की–‘गुरु महाराज ! मुझे नाम दे दो।’ सन्त गुरु रविदास जी ने चमड़ा भिगोने वाले कुण्ड में से पानी का एक चुल्लू भर कर राजा की तरफ बढ़ाया और कहा–‘राजा ! ले यह पी ले।’ राजा ने हाथ आगे करके वह पानी ले तो लिया लेकिन चमड़े वाला पानी एक क्षत्रिय राजा कैसे पीता ? उन्होंने इधर उधर देखा और पानी बाहों के बीच में गिरा लिया। सन्त रविदास जी ने यह सब देख लिया परन्तु जबान से कुछ नहीं कहा। राजा चुपचाप सिर झुका कर वहाँ से आ गए। महल में जाकर उन्होंने धोबी को बुलाया और हुक्म दिया कि इसी वक्त इस कुर्ते को गंगा घाट पर धो कर लाओ। धोबी, कुर्ते को घर ले गया। उसने दाग उतारने की बहुत कोशिश की पर सब कोशिशें बेकार गई। फिर उस धोबी ने अपनी लड़की से कहा–‘इस कुर्ते पर जो दाग है उनको मुँह में लेकर चूस लो जिससे यह दाग निकल जाए और कुर्ता जल्दी साफ हो जाए, नहीं तो राजा नाराज हो जाएंगे।’ लड़की मासूम थी। वह दाग चूसकर थूकने की बजाए, अन्दर निगल गई। इसका परिणाम यह हुआ कि वह लड़की ज्ञान ध्यान की बातें करने लगी। धीरे-धीरे यह खबर शहर में फैल गई की धोबी की लड़की महात्मा है। आखिर राजा तक भी यह बात पहुँच गई। जब राजा को यह पता चला तो वह एक दिन धोबी के घर पहुँचे। लड़की राजा को देखकर हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। राजा ने कहा–‘देख बेटी ! मैं तेरे पास भिखारी बनकर आया हूँ। राजा बनकर नहीं आया हूँ।’ लड़की ने कहा–‘मैं आपको राजा समझकर नहीं उठी, बल्कि मुझे जो कुछ मिला है वह आपकी बदौलत ही मिला है।’ राजा ने हैरान होकर पूछा कि ‘मेरी बदौलत ?’ लड़की ने कहा–‘जी हाँ !’ राजा ने कहा–‘वह कैसे ?’ तो लड़की बोली–‘मुझे जो कुछ मिला है आपके कुर्ते से मिला है। जो भी भेद था आपके कुर्ते में था।’ यह बात सुनकर राजा अपने आप को कोसने लगा और कहने लगा कि धिक्कार है मेरे राजपाट को, धिक्कार है मेरे क्षत्रिय होने को। जब राजा को ठोकर लगी तो वह लोक लाज और ऊंच-नीच की परवाह न करता हुआ सीधा सन्त रविदास जी के पास पहुँचा और हाथ जोड़कर उनके पैरों में गिर गया–‘गुरुदेव ! वह चरणामृत मुझे फिर से दे दो।’ सन्त रविदास जी ने कहा–‘अब नहीं। जब तू पहली बार आया था तो मैंने सोचा कि तू क्षत्रिय राजा होकर मेरे घर आया है। तो तुझे मैं वह चीज दूँ जो कभी नष्ट न हो। वह कुण्ड का पानी नहीं था बल्कि वह अमृत था, ज्ञान का भण्डार था। लेकिन तूने चमड़े का पानी समझकर उससे घृणा की और अपने कुर्ते पर गिरा लिया।’ राजा ने क्षमा याचना की और अपनी गलती के लिए पश्चाताप किया। सन्त रविदास जी ने राजा को सांत्वना देते हुए कहा–‘चिन्ता ना करो राजा ! अब जो मैं तुम्हें नाम सुमिरन दूँगा उसका प्रेम और विश्वास से अभ्यास करना। वह अनमोल खजाना तुम्हें अंदर से ही मिल जाएगा।’ राजा को समझ आ गई और उसने सन्त रविदास जी से नाम दान लिया और महात्मा बन गया। गुरु पर कभी शक नहीं करना चाहिए, वह जो देते हैं या कहते हैं उसमें हमेशा शिष्य की भलाई ही होती है। ----------:::×:::---------- "जय जय श्री राधे"




