सुरेंद्र मुनोत, ऐसोसिएट एडिटर
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कोबा, गांधीनगर (गुजरात),जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, युगप्रधान, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी शुक्रवार को प्रेक्षा विश्व भारती परिसर में बने ‘वीर भिक्षु समवसरण’ से आयारो अगाम के चौथे अध्ययन के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि कर्म सफल होता है। किए हुए कर्मों का फल भोगना होता है। अच्छा कर्म किया हुआ है तो अच्छे रूप में फल प्राप्त हो सकता है और बुरे कर्म किए होंगे, कदाचरण किए होंगे तो उसका बुरा फल प्राप्त होगा। कर्म अशुभ है तो अशुभ मिल सकेगा। इसलिए शास्त्रकार ने कहा कि कर्म सफल होता है, इस बात को जानकर ज्ञानी व्यक्ति, वेदवित् होता है। वेद, शास्त्रों को जानने वाला वेदवित् होता है। कर्म विधान को जानकर वह कर्म के संचय से निवृत्त हो जाता है। उसके लिए वह संवर की साधना करता है।कर्म अर्थात् आदमी की जैसी प्रवृत्ति होती है, जैसा व्यवहार होता है, उस प्रकार के कर्म आत्मा से चिपकते हैं और समय आने पर वे अपना फल देते हैं। कर्म का फल किस समय मिलेगा, इसको समझने के लिए दो उदाहरण हैं- जैसे अलार्म लगा दिया जाता है तो घड़ी उतना समय होते ही बजने लगती है अथवा कोई टाइम बम की टाइमिंग सेट कर रख दिया जाता है और वह उतने बजे फट जाता है। इसी प्रकार प्राणी ने जैसा कर्म बांधा है, कर्म अपने समय पर उसका वैसा फल देगा।पाप कर्म का बंधन भी होता है और पुण्य कर्म का भी बंध होता है। पाप कर्म का बंध होता है तो जीव को कष्ट, कठिनाई झेलनी पड़ती है। आदमी को तो पहले यह प्रयास करना चाहिए कि उसे पाप कर्म का बंध न हो। किसी को मारना, पिटना, किसी को कष्ट पहुंचाने, किसी पर झूठा आरोप लगाने, प्रताड़ित करने आदि और फिर कभी हिंसा, हत्या जैसे पाप कर्म ऐसे हैं तो सघन बंध कराने वाले होते हैं। आदमी को ऐसे पाप कर्मों से बचने का प्रयास करना चाहिए।आदमी को पुण्य कर्म भी भोगने होते हैं। पुण्य कर्म का बंध भी अच्छे आचरणों से होता है, लेकिन आदमी को पाप कर्म से बचने का प्रयास करना चाहिए। पुण्य का बंध होता है तो कोई शरीर से कितना सक्षम होता है कि चलना हो, कोई कार्य करना हो, कहीं किसी को सेवा देना आदि हो तो सभी कार्यों को करने में शरीर सक्षम है तो। शरीर की सक्षमता किसी पुण्याई का प्रतिफल ही होता है। शरीर की सुन्दरता भी पूर्वकृत पुण्यकर्म से संबंध है। शरीर का स्वस्थ होना भी पुण्याई का प्रतिफल होता है। इसलिए आदमी को अपने वर्तमान जीवन का भी बहुत अच्छा उपयोग करने, अच्छे कर्म, सेवा आदि में समय लगाने का प्रयास होना चाहिए। आदमी को अपनी तपस्या, साधना आदि के संदर्भ में पुण्य कर्म के अर्जन का प्रयास नहीं करना चाहिए। आदमी को जब भी कोई तप करता है, साधना करता है, सेवा करता है तो उसे पुण्य का अर्जन तो होता ही है। फिर भी आदमी को अपने पुण्य कर्मों का निदान नहीं करना चाहिए। साधुपन प्राप्त हो जाना बहुत सौभाग्य की बात होती है। आदमी संवर की साधना करे तो कर्म के बंधन से बच सकता है।आचार्यश्री ने आगे कहा कि आचार्यश्री भिक्षु के जन्म त्रिशताब्दी का वर्ष चल रहा है। इसमें अपने संन्यास जीवन को तेजस्वी बनाने का प्रयास होना चाहिए। परम पूज्य भिक्षु स्वामी को देखें तो उन्होंने कितनी तपस्या की। उनके जीवन से सभी को प्रेरणा प्राप्त होती रहे। आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन के उपरान्त चतुर्दशी के संदर्भ में हाजरी के क्रम को संपादित करते हुए समुपस्थित चारित्रात्माआंे को विविध प्रेरणाएं प्रदान कीं। आचार्यश्री की अनुज्ञा से मुनि सिद्धकुमारजी व मुनि संयमकुमारजी ने लेखपत्र का वाचन किया। आचार्यश्री ने दोनों संतों को दो-दो कल्याणक बक्सीस किए। तदुपरान्त समुपस्थित चारित्रात्माओं ने अपने-अपने स्थान पर खड़े होकर लेखपत्र उच्चरित किया।प्रेक्षा कल्याण वर्ष के अंतर्गत आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में एक माह तक प्रेक्षा प्रशिक्षक प्रशिक्षण सघन साधना शिविर का क्रम चला। इस संदर्भ में श्री पारसमूल दूगड़ ने जानकारी दी। उपस्थित शिविरार्थियों ने गीत का संगान किया। प्रेक्षा इंटरनेशनल के अध्यक्ष श्री अरविंद संचेती ने अपनी अभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने सभी शिविरार्थियों को मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।