सुरेंद्र मुनोत, ऐसोसिएट एडिटर
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कोबा, गांधीनगर (गुजरात),जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, युगप्रधान, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में प्रतिदिन तेरापंथ समाज की अनेकानेक संस्थाओं के अधिवेशनों, समारोह व सम्मेलनों का क्रम निरंतर जारी है। मंगलवार को मुख्य मंगल प्रवचन कार्यक्रम में आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में जैन विश्व भारती के तत्त्वावधान में समण संस्कृति संकाय द्वारा 25वें दीक्षांत समारोह का आयोजन किया।मंगलवार को विशाल ‘वीर भिक्षु समवसरण’ में समुपस्थित जनता को युग्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि जीव के कर्म बंधता है। जैन शास्त्रों में आठ कर्म प्रसिद्ध हैं। पच्चीस बोल का दसवां बोल ‘कर्म आठ’ भी वर्णित है। शास्त्र में बताया गया है कि पाप कर्म करने वाले नरक में भी पैदा होता है। नरक में तारतमता होती है। सभी नारकीय जीव प्रगाढ़ वेदना को भोगे, यह आवश्यक नहीं। कोई ज्यादा दुःख पाता है तो कोई कम दुःख पाता है। सात प्रकार के नरक बताए गए हैं। देवगति में अनेक प्रकार के भेद होते हैं। उनके आयुष्य में अंतर होता है। नरक और स्वर्ग दोनों की जघन्य न्यूनतम आयुष्य 10 हजार वर्ष का होता है। ‘आयारो’ आगम में बताया गया कि नरक में जाने वाले जीव प्रगाढ़ निष्ठुर वेदना को भोगने वाले हो सकते हैं। उसी प्रकार स्वर्ग की प्राप्ति मंे भी प्रगाढ़ रूप में अच्छे कर्म होते हैं तो उसका अच्छा फल मिलता है। जो असंज्ञी जीव और जिन प्राणियों के मन नहीं होता, वे ज्यादा पाप नहीं कर सकते तो वे मरकर ज्यादा खराब गति में नहीं जा सकते और ज्यादा अच्छा कार्य करके अच्छी गति को भी नहीं प्राप्त कर सकते। ज्यादा पाप वहीं प्राणी करता है, जिसके पास मन की शक्ति होती है। जो प्राणी संज्ञी होता है, वह सबसे निकृष्ट गति में भी पैदा हो सकता है और सर्वोत्कृष्ट गति को प्राप्त कर सकते हैं।इसलिए संज्ञी प्राणी ही बहुत ऊंची गति को भी प्राप्त कर सकता है और सबसे नीचले स्तर की गति को भी प्राप्त कर सकता है। जिसके अध्यवसाय प्रगाढ़ नहीं होते। आदमी को अपने भावों को अच्छा रखने का प्रयास करना चाहिए। एक डॉक्टर भी पेट चीरता है और एक डाकू भी पेट को चिरता है, लेकिन दोनों के विचारों में अंतर होता है। डॉक्टर रोगी का रोग निवारण के लिए ऐसा करता है और डाकू धन का हरण करने के लिए ऐसा कार्य किया है।इसलिए भावों और परिणामों में अंतर होता है। आदमी को अपने मन के भाव और परिणामों को अच्छा रखने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को अपने मन के भाव और परिणाम को अच्छा बनाए रखनें का प्रयास करना चाहिए। कोई कार्य भूल से हो जाए तो इतनी बात तो नहीं होती, लेकिन कार्य को करने के पीछे इरादा क्या है? इसका परिणामों पर विशेष प्रभाव पड़ता है और कर्मों का बंध हल्का अथवा गंभीर हो सकता है।जैसी भावना होती है, वैसी ही निष्पत्ति भी प्राप्त होती है। भावनाओं में अनासक्ति होती है तो ज्यादा पाप कर्म का बंध नहीं होता, लेकिन भावना खराब होती है तो उसका परिणाम भी खराब होता है। भगवान महावीर की आत्मा को ही देखें तो त्रिपृष्ठ भव के बाद सातवें नरक तक उनकी आत्मा गई थी। इसलिए आदमी को अपने भावों को निर्मल रखने का प्रयास करना चाहिए। भाव भी निर्मल और नीति भी शुद्ध और फिर कार्य भी निर्मल रूप में हो, धार्मिक क्रियाएं अच्छे रूप में चले तो उसकी आत्मा का कल्याण संभव है। इसलिए शास्त्र में बताया गया कि जैसा अध्यवसाय होता है, वैसा ही फल भी प्राप्त होता है।आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन के उपरान्त उपस्थित जनता को ‘तेरापंथ प्रबोध’ के आख्यान से भी लाभान्वित किया। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में जैन विश्व भारती की समण संस्कृति संकाय विभाग के अंतर्गत आयोजित जैन विद्या का 25वां दीक्षान्त समारोह कार्यक्रम समायोजित हुआ। इस संदर्भ में जैन विश्व भारती के आध्यात्मिक पर्यवेक्षक मुनि कीर्तिकुमारजी ने अपनी विचाराभिव्यक्ति दी। जैन विश्व भारती के अध्यक्ष श्री अमरचंद लूंकड़, समण संस्कृति संकाय विभाग के सहविभागाध्यक्ष श्री हनुमान लूंकड़ ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। इस संदर्भ में आचार्यश्री ने मंगल आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा कि विद्या और चारित्र मोक्ष का मार्ग है। जैन विद्या में अनेक विषय समाविष्ट हो जाते हैं। जैन विश्व भारती के नाम ही जैन विद्या समाविष्ट है। कितने वर्षों से जैन विद्या का उपक्रम चलाया जा रहा है। जैन विद्या को प्रसारित करने मंे अच्छी सहायक बन रही है। यह संकाय खूब अच्छा ज्ञान का प्रसार करने में योगदान देती रहे। जैन विश्व भारती के पदाधिकारियों आदि ने सम्यक् दर्शन कार्यशाला के बैनर को आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित किया। आचार्यश्री ने संथारा करने वाली श्रीमती रेशमीदेवी चौपड़ा के परिजनों को आध्यात्मिक संबल प्रदान किया।