*
सुरेंद्र मुनोत, ऐसोसिएट एडिटर
Key Line Times
सायला, सुरेन्द्रनगर (गुजरात) ,जन-जन के मानस को सद्भावना, नैतिकता व नशामुक्ति रूपी कल्याणकारी सूत्रों से पावन बनाने वाले, जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, मानवता के मसीहा आचार्यश्री महाश्रमणजी गुजरात के गांव-गांव, नगर-नगर, शहर-शहर को पावन बनाते हुए राजकोट की ओर गतिमान हैं। मंगलवार को प्रातः की मंगल बेला में शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने वस्तडी से मंगल प्रस्थान किया। वस्तडी के ग्रामीणों को आचार्यश्री के दर्शन व आशीष से लाभान्वित होने का अवसर मिला। गांववासी ऐसे महात्मा को अपने गांव में पाकर आनंदित नजर आ रहे थे। सभी पर आशीष वृष्टि करते हुए आचार्यश्री अगले गंतव्य की ओर बढ़ चले। एक ओर उत्तर भारत सहित मैदानी राज्य कड़कड़ाती ठंड से ठिठुर रहे हैं, वहीं गुजरात के इस सौराष्ट्र क्षेत्र में बहुत कम ही असर देखने को मिल रहा है। मार्ग में दर्शन करने वाले लोगों को अपने मंगल आशीष से लाभान्वित करते हुए आचार्यश्री लगभग बारह किलोमीटर का विहार कर सायला में स्थित श्री राज सोभाग आश्रम में पधारे। आश्रम से संबंधित लोगों ने आचार्यश्री का भावपूर्ण स्वागत किया। यह आश्रम श्रीमद राजचन्द्रजी से संबंधित है। आश्रम परिसर में आयोजित मुख्य मंगल प्रवचन कार्यक्रम में उपस्थित श्रद्धालुओं को महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि आगम साहित्य बड़ा महत्त्वपूर्ण है। आगम के स्वाध्याय से आध्यात्मिक पथदर्शन प्राप्त हो सकता है, तत्त्वबोध उपलब्ध हो सकता है, तत्त्व जिज्ञासा का समाधान भी कहीं-कहीं मिल सकता है। आगम वाङ्मय में एक उत्तराध्ययन भी आगम है। इसमें 36 अध्ययन हैं। इसमें सूक्त प्राप्त होता है कि आदमी की चेतना में राग और द्वेष के भाव अनंतकाल से स्थापित हुए हैं। आदमी की आत्मा ने अब तक अनंत जन्म-मरण भी कर लिए है और जब ये राग-द्वेष विराजमान रहेंगे जन्म-मरण की परंपरा चलती रहेगी। कर्मों का बीज राग और द्वेष ही हैं। कर्मों के बंधन का कारण राग और द्वेष ही होते हैं। राग-द्वेष को मोहनीय कर्म भी कह सकते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ आदि विकृतियों को मोहनीय कर्म ही पैदा करने वाला होता है। आदमी विकृति से प्रकृति की ओर लौटे, उसे ऐसा प्रयास करना चाहिए। उसके लिए राग और द्वेष दोनों भावों और उसके संवेदनों से मुक्त रहने का भाव हो तो आदमी अपनी प्रकृति की ओर लौट सकता है। जैन शासन में अहिंसा, संयम और तप को धर्म बताया गया है। इसलिए धर्म को सबसे उत्कृष्ट मंगल बताया गया है। इसलिए आदमी को राग-द्वेष की भावना को छोड़कर अहिंसा, संयम और तप रूपी धर्म की शरण में आने का प्रयास करना चाहिए। गृहस्थ यदि अपने जीवन में अणुव्रतों का अच्छे से अनुपालन करें तो मानना चाहिए कि जीवन में धर्म का समावेश हो गया है। साधु जितनी महाव्रतों की साधना न हो तो अणुव्रतों का अनुपालन कर ही आदमी अपने जीवन में सुधार ला सकता है। आदमी स्वाध्याय करे, ध्यान करे तो उससे अणुव्रत और ज्यादा मजबूत हो सकता है। राग-द्वेष दोनों ही साधना के बाधक तत्त्व हैं। आदमी के जीवन का दृष्टिकोण आध्यात्मिक बन जाए तो अच्छी दिशा में गति हो सकती है। अनाग्रह, विनय की भावना का विकास है तो अच्छी और कल्याणकारी बात को ग्रहण कर लेने का प्रयास करना चाहिए।
आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त साधक श्री नलीन भाई कोठारी व श्री विक्रम शाह ने भी अपनी विचाराभिव्यक्ति दी।