






🌸 एकाग्रतापूर्वक किया गया ध्यान कल्याणकारी : अध्यात्मवेत्ता आचार्यश्री महाश्रमण 🌸
-करीब 13 किलोमीटर का विहार कर शांतिदूत पहुंचे रांजनगांव
-चतुर्दशी के संदर्भ में भी आचार्यश्री ने चारित्रात्माओं को दी विशेष प्रेरणा
07.04.2024, रविवार, रांजनगांव, पुणे (महाराष्ट्र) :जनकल्याण के लिए गतिमान जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने रविवार को शिक्रापुर से प्रातः की मंगल बेला में प्रस्थान किया। स्थान-स्थान पर ग्रामीण जनता को आशीष प्रदान करते हुए आचार्यश्री अपने गंतव्य की ओर आगे बढ़ते जा रहे थे। आज भी विहार लगभग 13 किलोमीटर का था। गर्मी भी अपनी प्रखरता बनाए हुए थी। रांजनगांव महागणपति के लिए प्रसिद्ध है। ऐसे सुप्रसिद्ध गांव में आज तेरापंथ धर्मसंघ के अनुशास्ता का पदार्पण हो रहा था। आचार्यश्री लगभग तेरह किलोमीटर का विहार परिसम्पन्न कर रांजनगांव में स्थित राजकीय विद्यालय में पधारे। विद्यालय परिसर में उपस्थित जनता को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि ध्यान का उल्लेख हमें आगम आध्यात्मिक वाङ्मय में उपलब्ध होता है। उसमें एक स्थान पर सद्ध्यान की बात बताई गई है। प्रश्न हो सकता है कि ध्यान से पहले सद् क्यों लगाया गया? इसके दो कारण प्राप्त कर सकते हैं कि ध्यान दो प्रकार का होता है- अच्छा ध्यान और बुरा ध्यान। जैन धर्म में चार प्रकार जैन साहित्य में बताए गए हैं- आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल। इनमें आर्त और रौद्र ये दोनों बुरे ध्यान हैं, जो पाप कर्म का बंध कराने वाले होते हैं। धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान सद्ध्यान होते हैं। आर्त ध्यान अपने प्रिय के वियोग होने पर जो व्यथा होती है, वह आर्त ध्यान होता है। प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग से मानसिक व्यथा की स्थिति बनती है, वह आर्त ध्यान होता है। रौद्र ध्यान हिंसा आदि कार्यों से जुड़ी होती है। धर्म ध्यान भी अच्छा और शुक्ल ध्यान भी बहुत ऊंची बात है। आदमी शुक्ल ध्यान न कर सके तो उसे धर्म ध्यान करने का प्रयास करना चाहिए। जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ में प्रेक्षाध्यान चलता है। एक आलम्बन पर मन को नियोजित कर देना अथवा योग निरोध की साधना ध्यान कहलाती है। ध्यान में एकाग्रता की बात आती है। एकाग्रता का होना कई बार कठिन होता है। मन चलायमान होता है। लक्ष्मी, प्राण, जीवन, जवानी सभी चंचल हैं, किन्तु धर्म निश्चल है, इस कारण वह कल्याणकारी है। मन की चंचलता को ध्यान के अभ्यास के कम करने का प्रयास करना चाहिए। एकाग्रता भी अच्छे रूप में हो। एकाग्रता प्रभु के प्रति हो न कि संसार की चीजों में ध्यान हो। विषय भोगों में एकाग्रता हो जाए तो वह साधना में बाधक तत्त्व बन सकता है। चित्त और मन की एकाग्रता स्वाध्याय, मंत्र के जप में मन की एकाग्रता हो। मन की एकाग्रता के लिए माला का जप होता है। इसके लिए शरीर की स्थिरता और शिथिलता भी आवश्यक होती है। शरीर स्थिर होता है तो इससे मन की एकाग्रता सहायता प्राप्त होती है। मन की दो स्थितियां- व्यग्र और एकाग्र। आदमी को अपने मन को एकाग्र कर ध्यान करने का प्रयास करना चाहिए। यह मानव जीवन के लिए कल्याणकारी हो सकता है। पवित्र एकाग्रता पुष्ट हो, यह काम्य है। मंगल प्रवचन के उपरान्त आज चतुर्दशी होने के कारण हाजरी का क्रम भी था। आचार्यश्री ने हाजरी के क्रम को संपादित करते हुए उपस्थित चारित्रात्माओं को मंगल संबोध प्रदान किया। तदुपरान्त आचार्यश्री ने साध्वी समताप्रभाजी और साध्वी ऋद्धिप्रभाजी से पांच मिनट में ‘टाइम मैनेजमेंट’ के महत्त्व को बताने की अनुज्ञा प्रदान की। दोनों साध्वियों अपने ढंग से उत्तर देने का भी प्रयास किया। आचार्यश्री की अनुज्ञा से साध्वी रुचिरप्रभाजी व साध्वी चेतनप्रभाजी ने लेखपत्र का उच्चारण किया। तदुपरान्त उपस्थित चारित्रात्माओं ने अपने-अपने स्थान पर खड़े होकर लेखपत्र उच्चरित किया। स्कूल के प्राचार्य श्री प्रकाश कटारिया, श्री दर्शन चोरड़िया ने अपनी आस्थासिक्त अभिव्यक्ति दी।


