सुरेंद्र मुनोत, ऐसोसिएट एडिटर
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कोबा, गांधीनगर (गुजरात) ,कोबा में स्थित प्रेक्षा विश्व भारती में जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी के चतुर्मासकाल का समय धीरे-धीरे भले ही सम्पन्नता की ओर जा रहा हो, किन्तु तेरापंथ समाज के अंतर्गत संचालित अनेक संस्थाओं, संगठनों आदि के अधिवेशन, समारोह आदि के कार्यक्रम अभी भी निरंतर जारी हैं। युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में 3 अक्टूबर से जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा के तत्त्वावधान में राष्ट्रीय ज्ञानशाला प्रशिक्षक सम्मेलन व दीक्षांत समारोह का त्रिदिवसीय उपक्रम गतिमान है। इसके साथ ही अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह भी गतिमान है। शनिवार को शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने जहां जनता को आयारो आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान किया तो वहीं ज्ञानशाला के अधिवेशन के संदर्भ में जुटे प्रशिक्षकों को भी मंगल आशीर्वाद प्रदान किया और अणुव्रत उद्बोधन दिवस के संदर्भ मंे जनता को पावन प्रेरणा प्रदान की।शनिवार को प्रातःकालीन मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में उपस्थित जनता को शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आयारो आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि इस सृष्टि में जन्म, बुढ़ापा, रोग और मृत्यु भी दुःख है। आदमी इस संसार में देखा जाए तो ये सभी दुःख दिखाई भी देते हैं। मान लिया जाए, किसी का बुढ़ापा आ गया और वह परवश हो गया, तो वह एक प्रकार का दुःख ही हो गया। शास्त्रों में भी कहा गया है कि परवश हो जाना सबसे बड़ा दुःख है। बुढ़ापा और मृत्यु भी दुःख है। जन्म को भी दुःख कहा गया है। शास्त्र में कहा गया है कि जो मुनि सूत्र और अर्थ में रत रहता है, वह जन्म-मरण के वृत्त मार्ग का अतिक्रमण कर लेता है। आगम स्वाध्याय में रत रहने वाला साधु जन्म-मरण के चक्र का अतिक्रमण कर लेता है। स्वाध्याय अपने आप में एक तपस्या है। इससे ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है। आदमी का मन ज्ञान की बातों में लगे तो सुख भी प्राप्त हो सकता है और कर्म निर्जरा भी हो सकती है। अनेकों-अनेकों ग्रंथ व साहित्य हैं, किस ग्रंथ को पढ़ने से आध्यात्मिक स्फुरणा हो सकती है। जो ज्ञान आदमी को राग से वैराग्य की ओर बढ़ाए, जिससे चेतना मैत्री भाव से भावित हो जाए, वह ज्ञान ही असली ज्ञान है।सभी प्राणियों के प्रति मैत्री भावना का विकास होना आवश्यक है। इसलिए ही शास्त्र में कहा गया है कि जो साधु सूत्र और अर्थ में रत रहता है, वह अपने जीवन में कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर लेता है। स्वाध्याय की रुचि हो और शुभ योगों में स्थिति हो और अच्छी प्रेरणा मिले तो साधु का अच्छा उत्थान हो सकता है। व्याख्यान आदि का श्रवण भी अच्छा स्वाध्याय का माध्यम बन सकता है। कभी-कभी सुनते-सुनते भी जीवन में अच्छी गति-प्रगति हो सकती है। श्रवण करने से अच्छे ज्ञान की प्राप्ति भी हो सकती है। ज्ञान का विकास होता है तो विशेष ज्ञान हो सकता है। विशेष ज्ञान होने पर आदमी त्याग-प्रत्याख्यान की दिशा में भी गति कर सकता है। साधु को स्वयं तो स्वाध्याय करना ही चाहिए, दूसरों को भी उस स्वाध्याय से लाभान्वित करने का प्रयास करना चाहिए। स्वाध्याय करने से कोई विशेषज्ञ भी बन सकता है। आचार्यश्री ने आगे कहा कि अभी आचार्यश्री भिक्षु का जन्म त्रिशताब्दी वर्ष चल रहा है। आचार्यश्री भिक्षु अच्छे ज्ञाता थे। बात को बताने का भी उनका विशेष कौशल था। इसलिए सूत्र और अर्थ में रत मुनि जन्म-मरण के वृत्त से मुक्त हो सकता है।अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह का चौथा दिन और आज पर्यावरण शुद्धि दिवस है। यह समय अणुव्रत के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण समय है। पर्यावरण की बात है कि बाह्य पर्यावरण और भीतरी पर्यावरण भी होता है। बाह्य पर्यावरण को किन-किन रूपों मंे दूषित हो रहा है। पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल व वनस्पति प्रकृति से प्राप्त संसाधन हैं। इनका अनावश्यक दोहन से बचने का प्रयास होना चाहिए। किसी हरे-भरे वृक्ष को नुक्सान पहुंचाना भी बड़ा पाप और हिंसा जैसा कार्य हो जाता है। आदमी को जल का संयम, वनस्पतियों को अनावश्यक नुक्सान पहुंचाने से बचने का प्रयास करना चाहिए। संयम और अहिंसा की साधना भी होगी और पर्यावरण की सुरक्षा भी हो सकेगी। प्लाष्टिक की चीजों को इधर-उधर फेकना नहीं, उसके उपयोग आदि में भी संयम रखने का प्रयास करना चाहिए।
- आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा के तत्त्वावधान में राष्ट्रीय ज्ञानशाला प्रशिक्षक सम्मेलन का मंचीय उपक्रम भी रहा। इस संदर्भ में बालिका आराध्या गोलेछा ने गीत का संगान किया। ज्ञानशाला के राष्ट्रीय संयोजक श्री सोहनराज चौपड़ा ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। ज्ञानशाला की प्रशिक्षकाओं ने गीत का संगान किया। आचार्यश्री ने इस संदर्भ में मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।