
सुरेंंद्र मुनोत, राष्ट्रीय सहायक संपादक
Kry Line Times
बिलोता, उदयपुर (राजस्थान) ,उदयपुर नगरी को आध्यात्मिकता से आप्लावित कर और जन-जन को सद्भावना, नैतिकता व नशामुक्ति का मंगल संदेश प्रदान करने के उपरान्त जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा प्रणेता युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी गुरुवार को उदयपुर नगरी से बाहर की ओर गतिमान हुए। उदयपुरवासियों ने अपने आराध्य के श्रीचरणों में अपनी कृतज्ञता अर्पित की। अखण्ड परिव्राजक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने जनता को मंगल आशीष प्रदान करते हुए अगले गंतव्य की ओर बढ़ चले।अपनी धवल सेना के साथ आचार्यश्री नाथद्वारा की ओर जाने वाले मार्ग पर गतिमान हुए। मार्ग में स्थान-स्थान पर लोगों को आशीर्वाद प्रदान करते हुए निरंतर आगे बढ़ते जा रहे थे। मार्ग में एक स्थान पर बने टनल से आचार्यश्री पहाड़ी मार्ग के उस ओर पधारे। लगभग 11 किलोमीटर का विहार युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी बिलोता में स्थित ढाबालोजी रेस्टोरेंट परिसर में पधारे।प्रातःकालीन मुख्य मंगल प्रवचन कार्यक्रम के दौरान युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने उपस्थित जनता को पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि एक सिद्धांत है आत्मवाद। इसमें बताया गया है कि शरीर अलग है और आत्मा अलग होती है। दुनिया में एक और धारणा चलती है कि शरीर और आत्मा अलग-अलग नहीं एक ही है। वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो आत्मा अलग होती है और शरीर अलग है। जब तक जीवन है, तब तक आत्मा और शरीर का मिलन होता है। मृत्यु होने के बाद शरीर नष्ट हो जाती है और आत्मा अगले गति की ओर प्रस्थान कर जाती है। आत्मा फिर एक नया जन्म लेती है। जब पुनर्जन्म है तो पूर्व जन्म तो स्वतः सिद्ध हो जाता है। जब तक आत्मा का मोक्ष नहीं हो जाता, वह एक जन्म के बाद दूसरा जन्म लेती रहती है।प्रश्न हो सकता है कि आत्मा का बार-बार जन्म और मृत्यु क्यों होता है? उत्तर प्रदान किया गया कि क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी चार कषाय प्रवर्धमान होते हैं जो पुनर्जन्म रूपी वृक्ष को सिंचन देता रहता है। जब तक मोहनीय कर्म होता है, तब तक जन्म-मरण का क्रम लगा रहता है। मोहनीय कर्म के क्षय होने के बाद आत्मा जन्म-मरण से मुक्त हो जाती है। पुनर्जन्म का सिद्धांत अध्यात्म से जुड़ा हुआ है। पुनर्जन्म है, मोक्ष है तो अध्यात्म जगत और साधु बनने की गहरी उपयोगिता सिद्ध हो सकती है।आत्मवाद और पुनर्जन्म को मानकर ही आदमी को अपने जीवन को अच्छा बनाने का प्रयास करना चाहिए। सद्भावना, नैतिकता, अहिंसा, संयम आदि के द्वारा आदमी अपने वर्तमान जीवन को भी अच्छा बना सकता है और बाद के जीवन का भी भला कर सकता है। वर्तमान जीवन को भी देखते हुए अच्छे कर्म ही करने का प्रयास करना चाहिए। पापाचार, भ्रष्टाचार आदि-आदि से बचने का प्रयास करना चाहिए। पापों से बचने और धर्म के कार्यों को करने से वर्तमान जीवन तो अच्छा हो ही सकता है। आदमी को अणुव्रती बनने के लिए जैनी होना आवश्यक नहीं, तेरापंथ धर्मसंघ को मानने की आवश्यकता नहीं, मानवीयता, सद्भावना, नैतिकता रखे तो उसके जीवन में भी शांति रह सकती है।आचार्यश्री के स्वागत में प्रतिष्ठान के ऑनर श्री पारस बोल्या ने अपनी आस्थासिक्त अभिव्यक्ति दी तथा आचार्यश्री से मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया।

