*-आचार्यश्री महाश्रमणजी ने लोभ को बताया पाप का बाप, लोभ को छोड़ने को किया अभिप्रेरित…सुरेंद्र मुनोत, ऐसोसिएट एडिटर, Key Line Times वेसु, सूरत (गुजरात) , सूरत शहर में चतुर्मास करने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में अनेकानेक कार्यक्रम, अधिवेशन, सेमिनार, गोष्ठी आदि के साथ-साथ अनेक उपक्रम भी संचालित हो रहे हैं। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में चतुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति के अंतर्गत स्थानीय तेरापंथ किशोर मण्डल द्वारा दोदिवसीय तेरापंथ हस्तकला उत्सव का समायोजन किया गया। आचार्यश्री के मंगल आशीष से प्रारम्भ हुए इस उत्सव को दो दिनों में सैंकड़ों लोगों ने देखा, जाना व समझा। किशोरों द्वारा सुन्दर ढंग से हाथों से विभिन्न वस्तुओं पर बनाई गई कलाकृति प्रदर्शित की गई थी, जो दर्शकों को काफी आकर्षित कर रही थी। नारियल, अखरोट के छिलको पर कलाकारी, लकड़ी, वस्त्र इत्यादि चीजों पर की गयी चित्रकारी उनके हुनर को दर्शा रही थी। बुधवार को जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, अध्यात्मवेत्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने महावीर समवसरण में उपस्थित श्रद्धालुओं को आयारो आगम के माध्यम से पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि आदमी में लोभ की वृत्ति होती है। तत्त्वज्ञान के अनुसार दसवें गुणस्थान तक लोभ बना रहता है। मान और माया तो पहले समाप्त हो जाते हैं, किन्तु लोभ सबसे अंत में समाप्त होने वाला होता है। सामान्य आदमी लोभ के कारण माया भी कर सकता है, लोभ के कारण झूठ बोल सकता है और लोभ के कारण ही हिंसा, हत्या जैसा जघन्य पाप भी कर सकता है। इसलिए लोभ को पाप का बाप कहा गया है। लोभ ही समस्त पापों का जनक होता है। लोभ के कारण आदमी कामनाओं से भावित होता है और फिर उसे करने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। जो आदमी लोभ की प्रवृत्ति को छोड़कर अलोभी बन जाए तो उसकी आत्मा कितनी निष्पाप बन सकता है। अलोभ से लोभ को जीतने का प्रयास करना चाहिए। संतोष से लोभ पर विजय प्राप्त किया जा सकता है। आदमी लोभ को कम करने का प्रयास करना चाहिए। संतोष परम सुख होता है। गृहस्थ जीवन में कोई धनाढ्य हो सकता है। किसी के पास गाड़ी, बंगला, रुपया, पैसा आदि हो सकता है। भवन में एसी आदि की सुविधा हो सकती है, यथा अनेक प्रकार की सुविधाएं हो सकती हैं। इस भौतिक संसाधनों से सुविधा भले प्राप्त हो सकती है, किन्तु शांति की प्राप्ति नहीं हो सकती। मानसिक शांति के लिए जीवन में साधना का होना आवश्यक होता है। मानसिक शांति की प्राप्ति साधना हो सकती है। जहां आकांक्षा, तृष्णा नहीं होती, वहां शांति होती है। अहिंसा, संयम, तप, त्याग की साधना शांति का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। इसलिए आदमी को शांति के पथ पर आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। चतुर्मास का यह समय चल रहा है। चतुर्मास का आधा हिस्सा बीत गया है। अब चतुर्मास का उत्तर्राध चल रहा है। जैन साधु इन चार महीने तक एक स्थान पर रहता है। यह स्थिरता से साधना करने का समय होता है। इस दौरान जितना संभव हो सके आदमी को शांति प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए। गृहस्थ का जीवन जीने वाले जितना संभव हो सके, परिग्रह कम करने, संतोष व अलोभ की चेतना का विकास करने का प्रयास होगा, उतना ही परम सुख की प्राप्ति की दिशा में गति हो सकती है। जैन विश्व भारती द्वारा आचार्य भारमलजी की चित्रकथा को आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित किया गया। इस संदर्भ में आचार्यश्री ने पावन आशीर्वाद प्रदान किया। तेरापंथ कन्या मण्डल-सूरत ने चौबीसी के गीत का संगान किया। प्रोफेसर धर्मचंद जैन ने अपनी पचासवीं कृति ‘भारतीय राजनीतिक व्यवस्था और राष्ट्रपति के दो भाग’ को पूज्यप्रवर के समक्ष लोकार्पित करते हुए अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति दी। इस संदर्भ में आचार्यश्री ने पावन आशीर्वाद प्रदान किया। कच्छ-भुज से समागत श्री झवेरीजी, श्री हितेश खांडोर, श्री कीर्तिभाई ने अपनी अभिव्यक्ति दी। इस संदर्भ में आचार्यश्री ने पावन आशीर्वाद प्रदान किया।