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सुख का साधन : साधु संगत- आचार्य विशुद्ध सागर
ज्ञानियो ! यह शरीर एक यंत्र है, इसका संचालक- आत्मा है। आत्मा त्रयकालिक होती है। शरीर से आत्मा निकलने पर वह
कांतिहीन हो जाता है। हमारी आत्मा का कल्याण हो, इसलिए हम धर्म-पुरुषार्थ करते हैं। जो सच्चे भगवान् होते हैं वह किसी
पर नाराज नहीं होते, किसी पर प्रसन्न नहीं होते वह तो परम वीतरागी होते हैं।
ज्ञानियो ! जो साधक प्रशंसा में, निंदा में समान रहता है वही सच्चा साधक है । साधु जीवन में समत्व भाव का होना परम आवश्यक है। कोई शूल भी चुभाये, कष्ट भी दे फिर भी साधक का मन मलिन न हो वही श्रमण संस्कृति में साधु संज्ञा को प्राप्त है। जैसे आम्र के वृक्ष पर आम शोभित होते हैं। वैसे ही साधुओं में समता, क्षमा शोभित होती है।
युवाओ ! संसार के सभी सुख एक ओर हों और साधु सेवा सामीप्य का सुख एक ओर हो तो ज्ञानियो लीसाधु संगत का सुख श्रेष्ठ है। सज्जन पुरुषों पर साधुओं का भी पक्षपात होता है। शील ही सज्जनों का श्रृंगार है। साधुओं की भक्ति सेवा से सुंदर रूप की प्राप्ति होती है। जो श्रद्धा को जोड़ दे वही सच्चा साधु है ।
ज्ञानियो ! पशु भी शुभ भावों से पुण्य कमा सकता है। पशु भी पुरुषार्थ पूर्वक भगवान् बन सकता है। ज्ञानी तुम कितने ही छुपकर पाप कर लेना, परंतु स्वयं और स्वयंभू से कौन छुपा सकता है? तुम पाप छुपकर कर सकते हो, परंतु उसके उदय को तुम नहीं छुपा पाओगे।सभा का संचालन पंडित श्रेयांस जैन ने किया
वरदान जैन मीडिया प्रभारी






 
                        