सुरेंद्र मुनोत, ऐसोसिएट एडिटर
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कोबा, गांधीनगर (गुजरात) ,जन-जन के मानस को आध्यात्मिक प्रेरणा से भावित बनाने वाले, जन-जन को सन्मार्ग दिखाने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान देदीप्यमान महासूर्य, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी का कोबा के प्रेक्षा विश्व भारती में वर्ष 2025 का चतुर्मास अब धीरे-धीरे सम्पन्नता की ओर है। अहमदाबादवासियों का अपने आराध्य के दर्शन, सेवा, उपासना की भावना और अधिक प्रगाढ़ बनती जा रही है। बड़ी संख्या में श्रद्धालु अपने आराध्य की सन्निधि में पहुंचकर आध्यात्मिक लाभ तो प्राप्त करते ही हैं, भावी पीढ़ी भी प्रत्येक रविवार को ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों के रूप में अपने आराध्य की मंगल सन्निधि में पहुंचकर आध्यात्मिक अभिसिंचन प्राप्त कर रही है।रविवार को ‘वीर भिक्षु समवसरण’ में श्रद्धालुजनों के साथ-साथ ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों की भी विशेष उपस्थिति थी। युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित श्रद्धालुओं व ज्ञानार्थियों को आयारो आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि आदमी जीवन जीता है। जीवन जीना पर सापेक्ष है। कोई पूर्णतया पर निरपेक्ष होकर जीवन नहीं जी सकता। चाहे वह स्वाभाविक रूप में परापेक्षता हो या स्वीकृत रूप में परापेक्षता हो। किसी न किसी रूप में परापेक्षा रहती ही है। स्थूल रूप में देखा जाए तो सामूहिक जीवन जीना होता है। कोई अगर कहे कि मैं अकेला जीवन जीऊंगा। अकेला जीवन जीना तो बहुत ही कठिन लग रहा है। हालांकि प्राचीनकाल में कई साधु एकाकी विहार करने वाले होते थे, लेकिन किसी न किसी रूप में किसी का सहयोग तो लेना ही होता होगा। परापेक्षा के कई स्तर हो सकते हैं, लेकिन जीवन जीने में किसी दूसरे का सहयोग तो लेना हो ही सकता है।साथ में जीवन जीना है, पदार्थों का उपयोग करना हो तो भी आदमी को आसक्ति को छोड़ने का प्रयास होना चाहिए और यह भी विचार रखना चाहिए कि मेरा कोई नहीं है। व्यवहार नय के स्तर पर तो कई लोग तो हो भी सकते हैं, किन्तु निश्चय नय में देखा तो अपनी करनी को छोड़कर कोई अपना नहीं होता। आदमी को यह चिंतन रखना चाहिए कि वह अकेला आया है, अकेले ही अपने कर्मों के फल को भोगना होगा और अकेले ही चले भी जाना होगा। कोई सहयोग कर सकता है, लेकिन किसी तकलीफ और वेदना को कोई बांट नहीं सकता, वेदना तो उसी व्यक्ति को ही भोगना होता है।व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो आदमी के साथ उसका परिवार, समाज, राष्ट्र और संघ भी साथ होता है। उसे कदम-कदम पर परिवार, समाज व राष्ट्र अथवा संघ से सहयोग भी प्राप्त हो जाता है। परिवार के किसी सदस्य को तकलीफ हो जाती है तो परिवार के लोग डॉक्टर्स के पास ले जाते हैं, सेवा करते हैं, दवाई दिलाना, सेवा सापेक्ष की सेवा करने की बात भी आती है। इसी प्रकार देश में कोई आपदा आती है तो कितने-कितने लोग सेवा को तत्पर हो जाते हैं। यह व्यवहार नय के माध्यम सत्य प्रतीत हो रही है कि आदमी के साथ सभी लोग रहते हैं। इस प्रकार व्यवहार नय और निश्चय नय दोनों ही बातें सत्य हैं। इसी प्रकर हम संघ की दृष्टि से देखें तो व्यवहार की भूमिका पर यह कहा जाता है कि मैं गण का हूं और गण मेरा है, गण मेरे साथ है। हालांकि साधना की बहुत ऊंचाई पर साधु इससे उपरत हो जाता है। निश्चय की दृष्टि से व्यक्ति की साधना, उसका ज्ञान ही उसका अपना होता है। गृहस्थ जीवन में स्वस्थता और धन की अपेक्षा भी होती है। संसार में रहने वाले आदमी को धन के साथ-साथ धर्म को बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। धर्महीन धन नहीं होना चाहिए। गृहस्थ जीवन में धनाकर्षण रहे तो धर्माकर्षण भी रहे। धर्मयुक्त धन के अर्जन का प्रयास होना चाहिए। इस आदमी के जीवन में आत्मा, धर्म व अध्यात्म के प्रति भी आकर्षण रहे, यह काम्य है।आचार्यश्री के मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी ने समुपस्थित जनता को उद्बोधित किया। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त समणी मृदुप्रज्ञाजी ने गीत के माध्यम से अपनी भावाभिव्यक्ति दी। मोटेरा-कोटेश्वर ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति दी। ज्ञानार्थियों ने प्रस्तुति अंग्रेजी भाषा में दी तो आचार्यश्री ने भी ज्ञानार्थियों को अंग्रेजी भाषा में ही मंगल प्रेरणा प्रदान की। बालक पार्थ मुनोत ने अपनी बालसुलभ प्रस्तुति दी। ज्ञानशाला प्रशिक्षिकाओं ने गीत का संगान किया।