




22.07.2023, शनिवार, मीरा रोड (ईस्ट), मुम्बई (महाराष्ट्र) : नन्दनवन में विराजमान जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, युगप्रधान, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी को मुम्बईवासियों ने तपस्या की ऐसी भेंट समर्पित की जो तेरापंथ धर्मसंघ में नवीन इतिहास का सृजन कर गई। अड़सठ वर्षों बाद अपने आराध्य के प्राप्त चतुर्मास की खुशी में झूमते श्रद्धालुओं ने अपने आराध्य महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी को तपस्या की अनुपम भेंट अर्पित करने की ठानी और एक जुलाई से इक्कीस रंगी तप का क्रम प्रारम्भ हुआ। अपने सुगुरु की मंगलवाणी से तपस्या का क्रम आरम्भ हुआ तो लोग जुड़ते चले गए। यह तपस्या का ऐसा क्रम है कि 21 से लेकर 1 दिन के उपवास करने वाली न्यूनतम संख्या 21 होनी चाहिए। इस हिसाब से देखा जाए तो तपस्वियों की संख्या 441 होनी चाहिए, किन्तु आराध्य के प्रति अटूट श्रद्धा का परिणाम था कि न्यूनतम संख्या को पार करते हुए श्रद्धालुओं में मानों तपस्या की होड़-सी मच गई और शनिवार को जब आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में तपस्वियों के पारणे का समय आया तो कुल 1282 तपस्वियों ने आचार्यश्री महाश्रमणजी से मंगलपाठ और पावन पाथेय प्राप्त कर सामूहिक पारणा किया। इस तपस्या ने तेरापंथ धर्मसंघ में नवीन इतिहास का सृजन कर दिया। यह पहला अवसर था जब तेरापंथ धर्मसंघ के इक्कीस रंगी तपस्या सम्पन्न हुई। इसके साथ अन्य तपस्वियों ने अपनी तपस्या सम्पन्न की। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में शनिवार को साढ़े सात बजे के आसपास ही बड़ी संख्या में तपस्वी श्रद्धालुओं ने साथ जनता की उपस्थिति थी। महातपस्वी आचार्यश्री तीर्थंकर समवसरण में पधारे और वहां तपस्वियों को मंगलपाठ सुनाते हुए पावन प्रेरणा भी प्रदान की। तपस्वियों को साध्वीप्रमुखाजी, मुख्यमुनिश्री व साध्वीवर्याजी ने भी उद्बोधित किया। साध्वीवृंद ने गीत का संगान किया। तदुपरान्त आचार्यश्री प्रवास स्थल में पधारे और कुछ ही समय के उपरान्त पुनः तीर्थंकर समवसरण में आयोजित होने वाले मुख्य प्रवचन कार्यक्रम के लिए पधार गए। आचार्यश्री की ऐसी करुणा को प्राप्त कर श्रद्धालु निहाल थे। आचार्यश्री ने समुपस्थित विराट जनमेदिनी को भगवती सूत्र के माध्यम से पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि भगवती सूत्र में कुल, गण और संघ के प्रत्यनित भी बताए गए हैं। संघ अथवा संगठन में जो वृद्ध, बीमार और शैक्ष को अनुकंपनीय बताया गया है। इनको सेवा न देने वाला, संगठन को विघटित करने का प्रयास करने वाला प्रत्यनित होता है। आदमी को अपने भीतर सेवा की भावना का विकास करना चाहिए और सेवा व सहयोग के लिए निरंतर जागरूक रहने का प्रयास करना चाहिए। सहयोग की भावना और सेवा का आश्वासन हो तो संगठन मजबूत हो सकता है। इसलिए कहा गया है- परस्परोपग्रहो जीवानाम्। परस्पर सहयोग से ही जीवन का क्रम चलता रहता है। उचित सेवा और प्राप्त जिम्मेदारियों का सम्यक् निर्वहन करने का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन के उपरान्त कालूयशोविलास का सरसशैली में वाचन करते हुए आचार्यश्री कालूगणी की मेवाड़ यात्रा और आचार्यश्री कालूगणी को हुई पैर की समस्या का भी वर्णन किया। कार्यक्रम में श्रीमती शांता देवी ने 18, श्रीमती वीणा मेहता ने 30 व श्री मीठा लाल ने 22 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया।



