वेसु, सूरत (गुजरात) ,
युगप्रधान, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगलवार को महावीर समवसरण में उपस्थित जनता को नित्य की भांति आध्यात्मिक अनुष्ठान का प्रयोग कराया। तदुपरान्त समुपस्थित जनता को आयारो आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि आज्ञा का पालन करने वाला वीर प्रशंसनीय होता है। जो आज्ञा में नहीं चलता, वह निर्धन और ग्लानि से भरा हुआ हो सकता है। जो तीर्थंकर की आज्ञा में चलता है, वह धनवान, चरित्र सम्पन्न और वह शुद्ध मार्ग पर चलता है और अपना प्रतिपादन करता है। शुद्ध आचार के लिए तीर्थंकर के बताया मार्ग प्रशस्त है।
आदमी अपने जीवन में ज्ञान और आचार दोनों को महत्त्व देना चाहिए। कोरा ज्ञान होना भी कमी की बात होती है और ज्ञान विहीन आचार भी कितना अच्छा हो सकता है। इसलिए ज्ञान और आचार दोनों की संयुति होती है तो परिपूर्णता की बात हो सकती है। तीर्थंकर की बात से अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि का ज्ञान होता है तो आदमी उसके अनुरूप आचार करता है तो परिपूर्णता की बात हो सकती है। ज्ञान है और आचार नहीं है तो वह पंगु आदमी के समान है और ज्ञान नहीं और आचार है, वह अंधे आदमी की तरह होता है। ज्ञानविहीनता अंधापन और आचारविहीनता पंगुपन है।
आदमी के जीवन में ज्ञान और आचार दोनों का योग हो जाए तो मानव जीवन परिपूर्ण हो सकता है। केवल ज्ञान और केवल क्रिया अथवा आचार से कल्याण नहीं होता, ज्ञान और क्रिया दोनों का योग होने से मोक्ष की प्राप्ति भी संभव हो सकती है। पहले ज्ञानार्जन का प्रयास हो और फिर ज्ञान के अनुसार आचार होता है। जैसे कोई आदमी जब तक अहिंसा को नहीं जानता, भला वह अहिंसा का कितना पालन कर सकता है। जिस तरह की साधना करनी है, पहले उस साधना का ज्ञान हो जाए तब तो आदमी कोई साधना कर सकता है। जिस पथ पर चलना है, उस पथ का ज्ञान न हो तो आदमी भटक भी सकता है। जहां जाना है, उस रास्ते की जानकारी भी होनी आवश्यक होती है। इसलिए यह कितनी स्पष्ट बात होती है कि ज्ञान होने के बाद कोई क्रिया होती है तो निष्पत्तिकारक कार्य हो सकता है।
आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में सूरत में आयम्बिल का सामूहिक अनुष्ठान के अंतर्गत सैंकड़ों लोगों ने आचार्यश्री के श्रीमुख से प्रत्याख्यान स्वीकार किया।

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