झल्ली
जमाने में तस्वीर अब भी वही है,
पर तासीर बदल ली हमने,
समझदारों की भीड़ में घिरे रहने लगे हैं,
समझदार लगने भी लगे हैं,
लगने क्या स्वयं को समझने भी लगे हैं,
मनमौजी खिलखिला के हंसते रहते थे कभी,
चंचल बेफिक्री से खुल के व्यक्त किया करते थे कभी,
अब मुस्कुराने से पहले भी ठहर से जाते हैं,
बहती नदी के धार थे,
ठहर से गए हैं,
कोशिशें तो बहुत कि समझ जाएं,
कि,
कह दो सब तो सब खो जाता है,
और फिर सपने भी क्या सच होते हैं भला कभी,
पर क्या करें,
कब तक इस भ्रम में रहें
कि समझदारी सीख गये हैं हम,
पर सच तो यही है,
अल्हड़ से झल्ली थे हम,
झल्ली ही रह गये।
रश्मि सुराणा
कोलकाता
🙏