सुरेंद्र मुनोत, ऐसोसिएट एडिटर
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कोबा, गांधीनगर (गुजरात),जन-जन के मानस को आध्यात्मिक अभिसिंचन प्रदान करने वाले, जनता को सन्मार्ग दिखाने वाले, जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, सिद्ध साधक, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी वर्ष 2025 का चतुर्मास कोबा में स्थित प्रेक्षा विश्व भारती में कर रहे हैं। आचार्यश्री के आगमन से मानों कोबा नवीन आध्यात्मिक नगरी बनी हुई है। देश-विदेश से आने वाले हजारों श्रद्धालुओं का एक ही ठिकाना होता है, आचार्यश्री महाश्रमणजी का चातुर्मासिक प्रवास स्थल। प्रतिदिन हजारों की संख्या में श्रद्धालु सौभाग्य से प्राप्त इस अवसर का लाभ उठा रहे हैं। इतना ही नहीं, समय-समय पर राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों में विशिष्ट स्थान रखने वाले महानुभाव भी शांतिदूत की मंगल सन्निधि में उपस्थित होकर मंगल आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं। मानों वे आचार्यश्री से आध्यात्मिक ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए उपस्थित होते हैं।ऐसे महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में नवरात्र के प्रारम्भ के साथ ही आरम्भ हुए आध्यात्मिक अनुष्ठान का क्रम बुधवार को भी जारी रहा। ‘वीर भिक्षु समवसरण’ में उपस्थित हजारों श्रद्धालुओं को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल प्रवचन से पूर्व अनेक मंत्रों का जप आध्यात्मिक अनुष्ठान के संदर्भ में कराया। तदुपरान्त साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने जनता को उद्बोधित किया।शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित श्रद्धालु जनता को ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि स्वयं का किया हुआ कर्म स्वयं को ही भुगतना होता है। इसलिए किसी के हनन की इच्छा से बचने का प्रयास करना चाहिए। आदमी आक्रोश, द्वेष अथवा लोभ आने से हिंसा भी कर सकता है। बताया गया है कि जैसा संवेदन तुमने दूसरों को दिया है, वैसा संवेदन तुम्हें ही भुगतना होगा। आदमी यह सोचे कि यदि आज हिंसा करूंगा तो आगे मुझे भी ऐसी संवेदना भोगनी होगी, इसलिए मुझे बुरे और हिंसात्मक कार्यों से बचने का प्रयास करना चाहिए।आदमी जैसा करता है, वैसा उसे भोगना होता है। इस बात को आदमी को ध्यान में रखते हुए हिंसा और हत्या से बचने का प्रयास करना चाहिए। आदमी के छोटे-छोटे कार्य भी मानों रिकार्ड होते हैं। इसलिए यह विशेष रूप से ध्यान रखने का प्रयास हो कि स्वयं से किसी प्रकार की किसी भी प्राणी के प्रति गलत व्यवहार नहीं करना चाहिए। साधु के जीवन में कितनी अहिंसा की बात है। भोजन पकाना, पकवाना नहीं, पैदल चलो, मुखवस्त्रिका, रजोहरण, प्रमार्जनी आदि अहिंसा के पालन के लिए ही रखे जाते हैं। गृहस्थ जीवन में भी आदमी को पूर्णतया हिंसा से बचना से तो बहुत मुश्किल है। गृहस्थ जीवन में जीवनयापन के लिए और रक्षा के लिए हिंसा अलग कोटि की हिंसा होती है। आदमी को संकल्पजा हिंसा से बचने का प्रयास करना चाहिए। गृहस्थ जीवन में हिंसा, चोरी, छल-कपट से बचने का प्रयास करना चाहिए। जहां तक संभव हो सके, ईमानदारी, नैतिकता व अहिंसा के पालन का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि आदमी जो भी कार्य करता है, उसे वैसा ही फल भी भोगना होता है। इसलिए आदमी को अधिक से अधिक पापों से बचने और स्वयं के कल्याण का प्रयास करना चाहिए।