सुरेंद्र मुनोत, ऐसोसिएट एडिटर
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शाहीबाग, अहमदाबाद (गुजरात),गुजरात प्रदेश का मानों सौभाग्य जग गया है, क्योंकि वर्ष 2024 का चतुर्मास डायमण्ड सिटी सूरत में करने के उपरान्त जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, महातपस्वी, अखण्ड परिव्राजक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने गुजरात की सीमा से बाहर चरण ही नहीं बढ़ाए। सूरत में चतुर्मास करने के उपरान्त शेष आठ महीने भी गुजरात के अनेकानेक जिलों के अनेकानेक नगरों आध्यात्मिकता की ज्योति जलाते हुए युगप्रधान आचार्यश्री अपनी धवल सेना के साथ वर्ष 2025 का चतुर्मास अहमदाबाद नगर के कोबा में स्थित प्रेक्षा विश्व भारती में करेंगे। आचार्यश्री का चातुर्मासिक प्रवेश 6 जुलाई को होगा। इसके पूर्व आचार्यश्री अहमदाबाद नगर की उपनगरों की यात्रा करने के उपरान्त शाहीबाग में स्थित तेरापंथ भवन में सप्तदिवसीय प्रवास कर रहे हैं।मंगल प्रवास के चौथे दिन तेरापंथ भवन में उपस्थित श्रद्धालु जनता को तेरापंथाधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि प्राणी के भीतर दो वृत्तियां होती हैं- राग और द्वेष। जब तक वीतरागता प्राप्त न हो जाए, तब तक इनसे मुक्ति नहीं मिल पाती। तात्त्विक दृष्टि से भी बात करें तो ग्यारहवें गुणस्थान में राग-द्वेष उदय स्थिति में तो नहीं रहते, किन्तु भीतर में उनकी सत्ता बनी रहती है। बारहवां गुणस्थान प्राप्त होने पर राग-द्वेष पूर्णतया निर्मूल हो जाते हैं।राग-द्वेष को कर्मों का बीज कहा गया है। इनसे जीव को पाप कर्मों का बंध होता है। राग-द्वेष के कारण आदमी ही आदमी पापाचार की प्रवृत्तियों में चला जाता है। राग-द्वेष के कारण ही सभी प्रकार के कर्मों के बंध जीव को होते हैं। राग-द्वेष से मुक्ति पाने के लिए आदमी को समता की साधना करने का प्रयास होना चाहिए।आदमी के मन में कभी राग आता है तो कभी द्वेष का भाव जागृत होता है। किसी चीज के प्रति आदमी के मन में राग होता है तो किसी चीज के प्रति मन में द्वेष की भावना होती है। राग-द्वेष की भावनाओं से मुक्ति हो जाए तो आदमी वीतरागता के पथ पर अग्रसर हो सकता है। राग-द्वेष से मुक्ति का प्रयास भी एक बड़ी साधना हो सकती है। आदमी अपने जीवन में यह प्रयास करे कि मुझे राग-द्वेष में नहीं जाना। प्रेक्षाध्यान परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी कराते थे। प्रियता और अप्रियता के भावों से मुक्त रहकर देखने की प्रेरणा देते है। राग-द्वेष को भयंकर पाश कहा गया है। इनको काटकर जो विहरण करता है, वह आत्मसुख में रह सकता है। साधना का मौलिक तत्त्व है- राग-द्वेष को छोड़ना।जीवन में अनुकूलता-प्रतिकूलता की स्थिति आ सकती है, लेकिन दोनों ही स्थितियों में अपने आपको संतुलित बनाए रखना अध्यात्म की साधना होती है। अर्हत पूर्णतया वीतराग होते हैं। राग-द्वेष को जीतने वाले केवलज्ञानी होते हैं। आदमी पूरी तरह राग-द्वेष को समाप्त नहीं कर सकता तो धीरे-धीरे कुछ कम करने का प्रयास करना चाहिए और राग-द्वेष रूपी भयंकर पाश से मुक्त होने, उन्हें काटने का प्रयास होना चाहिए।आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त साध्वीवर्याजी ने जनता को उद्बोधित किया। समणी रोहिणीप्रज्ञाजी ने भी अपनी भावाभिव्यक्ति दी। श्रीमती लीला सालेचा ने अपनी अभिव्यक्ति दी। श्री लक्ष्मण गोगड़ ने गीत का संगान किया।