सुरेंद्र मुनोत, ऐसोसिएट एडिटर, Key Line Times
वेसु, सूरत (गुजरात) ,जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता ने उपस्थित जनता को आयारो आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि हमारी दुनिया में दुःख देखने को मिलता है। दुनिया में किसी आदमी को कोई दुःखी है तो किसी को किसी प्रकार का दुःख होता है। जीवनकाल के किसी को किसी प्रकार का दुःख न हो, भला ऐसा कौन हो सकता है और कितने लोग ऐसे हो सकते हैं? किसी को आर्थिक समस्या है तो किसी को पारिवारिक समस्या है, किसी को शारीरिक समस्या है तो किसी को मानसिक समस्या भी है। आदमी के जीवन में प्रायः ही दुःख, कष्ट, समस्या आती ही रहती है। इस आगम में बताया गया कि इस दुःख की उत्पत्ति आरम्भ से होती है। आचारांगभाष्य में बताया गया कि जो असंयम है, वह आरम्भ है, हिंसा आदि के रूप में होने वाली प्रवृत्ति आरम्भ होती है। हिंसा एक प्रवृत्ति भी है तो उसके पीछे किसी राग-द्वेष की वृत्ति होती है। राग-द्वेष की वृत्ति असंयम की प्रवृत्ति कराने वाली होती है।
राग-द्वेष की वृत्ति असंयम और हिंसा की प्रवृत्ति कराने वाली होती है। समरांगण में युद्ध आरम्भ होने से पहले आदमी के भावों में युद्ध प्रारम्भ होता है, बाद में उसकी क्रियान्विति समरांगण में होती है। दुःख की जननी आरम्भ और असंयम है। वहां से दुःख पैदा होता है। आदमी असंयम करता है और फिर दुःखी बन सकता है। हिंसा करे, प्रमाद करता है तो उस कारण वह दुःखी बन सकता है।
आदमी अपनी इन्द्रियों का, वाणी का असंयम करता है तो दुःख पैदा हो सकता है। किसी के संदर्भ में अनावश्यक हंसी-मजाक भी कर दे तो भी कहीं न कहीं दुःख की स्थिति पैदा हो सकती है। आदमी को अपने जीवन में संयम रखने का प्रयास करना चाहिए। जीवन में जितना संयम होगा, दुःख से मुक्ति की बात हो सकती है।
साध्वीवर्याजी के 13वें दीक्षा दिवस पर आचार्यश्री ने आशीष प्रदान किया। तेरापंथ महिला मण्डल-सूरत द्वारा आयोजित ‘जैनम् जयतु शासनम्’ कार्यक्रम के तहत सकल जैन महिला सम्मेलन का आयोजन हुआ। इस संदर्भ में तेरापंथ महिला मण्डल-सूरत की पूर्व अध्यक्ष श्रीमती मधु देरासरिया ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी।
युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने इस संदर्भ पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि शासन के नायक तीर्थंकर होते हैं। भगवान महावीर इस अवसर्पिणी काल के अंतिम चौबीसवें तीर्थंकर हुए। चार तीर्थ साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका। साधु-साध्वी तो वंदनीय पूजनीय होते हैं। श्रावक-श्राविका को भी तीर्थ कहा गया है। श्राविका होना भी एक उपलब्धि होती है। जैन शासन में अनेक संप्रदाय हैं। अलग-अलग मान्यता, उपासना पद्धति, वंदना विधि में कुछ भेद होने के बाद भी अभेद को देखने का प्रयास करना चाहिए। जैन शासन की श्राविकाएं खुद अपनी आध्यात्मिक साधना अच्छी करें। जीवन त्याग, संयम जितना बढ सके, ज्ञान जितना बढ़ सके। अपने परिवारों को सुसंस्कारी बनाए रखने का प्रयास हो। महिलाओं का खूब अच्छा विकास होता रहे।