


विरल मनुष्यों में से एक आचार्य भिक्षु
आचार्य श्री भीखण जी तेरापंथ के प्रथम आचार्य थे। वे स्वामी जी ,आचार्य भिक्षु तथा भिक्खु नाम से प्रसिद्ध थे। भक्तजन आदरवश उन्हें केवल स्वामी जी ही कहा करते थे।वे एक निर्भीक और प्रत्युत्पन्नमति आचार्य थे। सत्य प्रेमी प्राय सभी होते हैं परंतु सत्य के लिए सुख प्रतिष्ठा पद और परंपराओं को ठोकर मार देने वाले विरल ही होते हैं ।स्वामी जी उन विरल मनुष्यों में से एक थे ।सत्य को स्वीकार करने में उन्होंने कभी ढिल नहीं दी और असत्य से कभी समझौता नहीं किया। स्वामी भिखण जी का जन्म विक्रम संवत 1783 आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी को कंटालिया ग्राम में मंगलवार के दिन हुआ। आपके पिता का नाम शाह बल्लू जी और माता का नाम दीपा बाई था। आपकी माता ने सिंह का सपना देखा था। कहां जाता है ऐसा स्वप्न किसी महापुरुष के अवतरण का सूचक होता है। स्वामी जी बाल्य काल से ही अत्यंत निपुण और कुशाग्र बुद्धि वाले थे। साधारण बुद्धि और दूरदर्शिता ने उनका हर स्थान पर महत्वशील व्यक्ति बना दिया। धर्म साधना और भोग साधना का साथ एक नहीं हो सकता। दोनों में से किसी एक को अपनाया जा सकता है ।भिखण जी ने अपने आप को धर्म साधना के लिए समर्पित कर दिया। विक्रम संवत 1808 मार्गशीर्ष कृष्णा 12 को बगडी में दीक्षा ग्रहण किया। तेरापंथ की की वास्तविक स्थापना विक्रम संवत 1817 की आषाढ़ पूर्णिमा के दिन हुई। स्वामी भिखण जी का मूल लक्ष्य आत्मोद्धार था परंतु जन्मोद्धार को भी वे बड़ा महत्वपूर्ण कार्य मानते थे।संयम स्वाध्याय ध्यान ज्ञान तपस्या आदि से आत्मोद्धार के मार्ग पर भी निरंतर अग्रसर थे ।व्याख्यान ध्यान धर्म चर्चा वार्तालाप प्रश्न उत्तर आदि से जनता में धार्मिक संस्कार भरने में भी पूरे प्रयत्नशील थे। स्वामी जी ने भगवान महावीर के सिद्धांतों का शुद्ध स्वरूप जनता के सम्मुख रखा। विरोधी लोग स्वामी जी को कष्ट देने का प्रयास करते पर स्वामी जी ने तपस्या प्रारंभ करके उनके साथ ही अपनी ओर से कुछ और कष्ट मिलकर मानव को जता देना चाहते थे कि तुम कष्ट पहुंचाना चाहते हो उससे कहीं अधिक कष्ट सहन करने की क्षमता हम रखते हैं इसलिए उन्होंने प्रत्येक कष्ट के सामने अपने आप को पूर्ण रूप से उपस्थित किया और पूर्ण शक्ति के साथ उसका सामना किया।उन्होंने कष्ट भोग को दैन्य के प्रतिक से उठाकर वीरत्व के सिंहासन पर ला बिठाया। स्वामी जी ने भाद्रपद शुक्ल द्वादशी सोमवार को संथारा ग्रहण किया। विक्रम संवत 1860 भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी मंगलवार के दिन सात प्रहर का संथारा प्राप्त कर सिरियारी में स्वामी जी दिवंगत हो गए।ऐसे विरल व्यक्तित्व को आज के दिन बार बार वंदना करते हैं।
कुसुम चिंडालिया




