
सुरेंंद्र मुनोत, ऐसोसिएट एडिटर
Key Line Times
कंटालिया, पाली (राजस्थान) ,जन-जन के मानस को आध्यात्मिक अभिसिंचन प्रदान करने वाले, जन-जन को सद्भावना, नैतिकता व नशामुक्ति का संदेश देने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी वर्तमान में अपने आराध्य, तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य प्रणेता, प्रथम अनुशास्ता, महामना आचार्यश्री भिक्षु की जन्मस्थली कंटालिया में 13 रात्रियों का प्रवास सुसम्पन्न कर रहे हैं। आचार्यश्री का यह प्रवास महामना आचार्यश्री भिक्षु जन्म त्रिशताब्दी वर्ष ‘भिक्षु चेतना वर्ष’ के महाचरण के संदर्भ में भी हो रही है। इसलिए यह प्रवास श्रद्धालुओं और अधिक उत्साह, उल्लास को बढ़ाने वाला है। इस अवसर का पूर्ण लाभ उठाने के लिए निवासी ही नहीं, प्रवासी श्रद्धालुजन भी अपनी पैतृक भूमि में पहुंचकर इस आध्यात्मिक सुअवसर का लाभ प्राप्त कर रहे हैं।शनिवार को ‘भिक्षु चेतना वर्ष’ के महाचरण का छठा दिवस था। रावले के परिसर में बने विशाल एवं भव्य ‘भिक्षु समवसरण’ में युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी के मंचासीन होते हुए तो उपस्थित विशाल जनमेदिनी ने बुलंद स्वर में जयघोष कर पूरे वातावरण को अध्यात्ममय बना दिया।आचार्यश्री के मंगल महामंत्रोच्चार के साथ छठे दिन के महाचरण के कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ। साध्वी शारदाश्रीजी आदि साध्वियों ने गीत का संगान किया। मुनि योगेशकुमारजी ने आज के निर्धारित विषय ‘आचार्य भिक्षु व तेरापंथ की स्थापना’ विषय पर अपनी अभिव्यक्ति दी।
तदुपरान्त युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित चतुर्विध धर्मसंघ को मंगल संबोध प्रदान करते हुए कहा कि धर्म वह तत्त्व है जो आदमी को दुर्गति से बचा सकता है तथा शुभ स्थान में स्थापित कर सकता है। इसलिए धर्म परम मंगल तत्त्व होता है। जिसका मन सदैव धर्म में रमा रहता है, देवता भी उसको नमस्कार करते हैं। धर्म एक ऐसा तत्त्व है जो व्यक्ति को पूजनीय बना देता है।महामना आचार्यश्री भिक्षु ने केलवा में नव्य-भव्य दीक्षा ग्रहण की। प्रश्न हो सकता है कि उन्होंने दुबारा दीक्षा ग्रहण क्यों की? उत्तर हो सकता है कि वे पहले की अवस्था जिस परंपरा में साधु बने थे, लेकिन उस अवस्था को उन्होंने साधुपन माना ही नहीं, इसलिए अभिनिष्क्रमण के उपरान्त पुनः उन्होंने नवीन दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने अपना साधुपना स्वीकार किया था। स्थापना में मूल तेरह संत थे। बाद में सात तो चले गए और शेष छह संत थे तो उन्हें तेरापंथ की स्थापना छह मुख्य स्तंभ मान लेना चाहिए। स्वामीजी के साथ उन्होंने किस प्रकार साथ दिया। उन कठिन परिस्थितियों उन पांच संतों का स्वामीजी के साथ रहना भी कितना साहसिक कार्य रहा। तेरापंथ की स्थापना में इनका भी योगदान मान सकते हैं।तेरापंथ की एकता का सबसे बड़ा आधार है, एक आचार्य निष्ठ धर्मसंघ का होना। भावी आचार्य का निर्णय करने का अधिकार वर्तमान आचार्य का ही होता है। इससे भी संघ की एकता में सहयोग मिलता है। कौन साधु-साध्वी कहां विहार-चतुर्मास करेगा, यह भी आचार्य के निर्णय के अधीन ही होता है। इससे श्रावक समाज की एकजुटता रह सकती है। योग्य व्यक्ति की ही दीक्षा दी जाती है। संघ से अलग हो जाने वाले को प्रश्रय नहीं देना भी एकजुटता का सूत्र है। यह मर्यादाएं-व्यवस्थाएं आज भी सुचारू रूप से संचालित हैं। एक नेतृत्व के होने से एकता का सूत्र मानों कितना सुदृढ़ है। नियति का योग है कि संघ की सारी मर्यादाएं अच्छे ढंग से चल रही हैं। तेरापंथ धर्मसंघ में सेवाकेन्द्रों की व्यवस्था आदि भी कितनी सुदृढ़ता प्रदान करने वाली है। समुदाय की बहुत वृद्धि हुई है। हम सभी साधु-साध्वियां अपनी साधना को आगे बढ़ाते हुए अपने धर्मसंघ की सुषमा को जितना बढ़ा सकें, यह काम्य है।आचार्यश्री ने आज भी साधु, साध्वियों व समणीवृंद को अपनी जिज्ञासाओं को प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान किया। आचार्यश्री ने सभी चारित्रात्माओं की जिज्ञासाओं को समाहित किया। यह प्रसंग और यह दृश्य उपस्थित चतुर्विध धर्मसंघ को अपने देव, धर्म और गुरु के प्रति आस्था को परिपुष्ट बनाने वाली रही।मुनि अजितकुमारजी ने आचार्यश्री से अठाई की तपस्या का प्रत्याख्यान किया। साध्वी काव्यलताजी ने आचार्यश्री के समक्ष अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करते हुए सहवर्ती साध्वियों के साथ गीत का संगान किया। आचार्यश्री ने उन्हें मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। तेरापंथ महिला मण्डल-चेन्नई की अध्यक्ष श्रीमती सुमन मरलेचा ने गीत को प्रस्तुति दी। मंत्री श्रीमती तारा मरलेचा व सहमंत्री श्रीमती कविता सेठिया ने अपनी अभिव्यक्ति दी। अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री पवन माण्डोत ने अपनी अभिव्यक्ति 54 दिवसीय अखण्ड जप आदि के संदर्भ में जानकारी दी तथा आचार्यश्री की मार्ग सेवा में सत्कार ऑन ह्वील बस के संदर्भ में जानकारी दी।

