सुरेंद्र मुनोत, ऐसोसिएट एडिटर
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कोबा, गांधीनगर (गुजरात),शक्ति की आराधना का क्रम प्रारम्भ हो गया है। शारदीय नवरात्र के अवसर पर जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, मानवता के मसीहा, अखण्ड परिव्राजक आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में आध्यात्मिक अनुष्ठान प्रारम्भ हो चुका है। मंगलवार को प्रातःकालीन मुख्य प्रवचन कार्यक्रम के लिए ‘वीर भिक्षु समवसरण’ में विराजित महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित श्रद्धालुओं को आध्यात्मिक अनुष्ठान के अंतर्गत मंत्र जप का प्रयोग कराया। आचार्यश्री के साथ समुपस्थित चतुर्विध धर्मसंघ इस अनुष्ठान से जुड़कर स्वयं को लाभान्वित बनाया।तदुपरान्त महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित जनता को पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि ‘आयारो’ आगम में बताया गया कि उत्थित और स्थित की गति को सम्यक्तया देखो। उत्थित का अर्थ उठा हुआ और स्थित का अर्थ है एक स्थान पर अडिग रहना। सामान्यतया आदमी को कहीं जाना है तो आदमी को उठना अपेक्षित होता है। फिर आदमी खड़ा होता है और फिर कहीं जानने की तैयारी करता है। गति से निवृत्ति हो गई तो वह स्थिर हो गया और चलना गति होती है। उठना एक विकास की बात भी हो सकती है। आदमी जिस क्षेत्र में भी हो, उसमें उत्थान करे, अच्छी गति करे। यात्रा करने से पहले भी आदमी को उठना होता है। शरीर के संदर्भ में भी उत्थान होता है, विकास होता है, गति भी होती है और शरीर स्थिर भी होता है।यहां आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से विचार करें। नवरात्र में आध्यात्मिक अनुष्ठान का क्रम चल रहा है। गणाधिपति आचार्यश्री तुलसी के समय में यह क्रम आरम्भ होता है। यह समशितोष्णकाल का समय है। सर्दी और गर्मी के दृष्टि से समान सा मौसम सम-सी है। आधा चतुर्मास तो सम्पन्न हो गया है। आदमी का आध्यात्मिक दृष्टि से उत्थान हो और शक्ति का भी विकास हो। प्रश्न हो सकता है कि शक्ति क्यों चाहिए? कौन-सी शक्ति चाहिए? समाधान देते हुए बताया गया कि शारीरिक शक्ति की बात की जाए तो आदमी का शरीर स्वस्थ रहे, कहीं कोई बीमारी न हो, घुटनों आदि में दर्द की स्थिति न हो, तंत्र अच्छा कार्य करे, शरीर से श्रम हो सके, इसलिए शरीर की शक्ति का महत्त्वपूर्ण होती है। दूसरी शक्ति मन की होती है। जिसके मन की शक्ति होती है, वह कठिन चुनौतियों को भी झेल सकता है, और कोई थोड़ी-सी कठिनाइयों में घबरा जाता है, कमजोर हो जाता है। आदमी का मनोबल अच्छा हो, उसमें साहस और हिम्मत हो तो वह कोई कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य भी सम्पन्न कर सकता है। आदमी में सहनशक्ति और वचनशक्ति भी अपेक्षित होती है। आदमी सहिष्णु हो तो अच्छा विकास हो सकता है। आदमी को कहीं भाषण देना, किसी विषय पर बोलना हो तो उसके वचन में शक्ति होती है तो वह लोगों तक अच्छे से पहुंच सकती है और उसकी बातों का अनुश्रवण भी कर सकते हैं। वाणी भी स्पष्ट होनी चाहिए।गृहस्थ आदमी को धन की शक्ति का भी क्रम हो सकता है। राजनेताओं को जनता का बल भी अपेक्षित होता है। दुनिया में लोगों को दैवीय शक्ति की अपेक्षा होती है। इसलिए जगह-जगह दुर्गा देवी की उपासना भी की जाती है। चारित्र की शक्ति का विकास होना चाहिए। शक्ति से आदमी स्वयं का कल्याण और दूसरी की सेवा और कल्याण का प्रयास कर सकें, इसके लिए शक्ति परम आवश्यक होता है। आदमी की शक्ति किसी की सेवा, दूसरों का भी कल्याण करने में उपयोग होनी चाहिए। शक्ति का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त मुनि ध्यानमूर्तिजी ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी।