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Previous: आचार्य महाश्रमणजी ने अपने प्रवचन मे कहा कि भोगी और रोगी नहीं, योगी बनने की दिशा में हो गति….सुरेंद्र मुनोत, ऐसोसिएट एडिटर, Key Line Times 11.09.2024, बुधवार, वेसु, सूरत (गुजरात), युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने बुधवार को महावीर समवसरण में उपस्थित जनता को आयारो आगम के माध्यम से पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि आदमी को जब यह जानकारी हो जाती है कि काम-भोगों से जीवन में रोग की उत्पत्ति होती है। आदमी अत्राण और अशरण भी है, दुःख, सुख भी अपना-अपना होता है। इन बातों का ज्ञान होने के बाद भी कुछ लोग धर्म की ओर आगे बढ़ जाते हैं और कुछ लोग जानकर भी भोगों के विषय में ही आसक्त रहते हैं। तीन शब्द बताए गए हैं- भोग, योग और रोग। योग साधना में धर्म और अध्यात्म की साधना होती है, जिससे आत्मा के रोग भी दूर हो जाते हैं। कई बार शारीरिक कष्ट भी योग की साधना से दूर हो सकते हैं। जीवन को चलाने में पदार्थों की अपेक्षा भी होती है। आदमी को यह विचार करना चाहिए कि आदमी को अपने जीवन में किसी पदार्थ की आवश्यकता कितनी है और अपेक्षा और लालसा कितनी है। भूख लगे तो भोजन, प्यास लगे तो पानी, शरीर के लिए कपड़ा, आश्रय के लिए मकान की आवश्यकता होती है। पढ़ने-लिखने के लिए संबंधित पदार्थ चाहिए। सोने के लिए कुर्सी और पलंग की आवश्यकता होती है। ये सारी चीजें तो आवश्यक हैं, किन्तु इन संदर्भों में इच्छा कितनी है, इसे ध्यान में रखने का प्रयास करना चाहिए। आदमी साधारण कपड़े से भी शरीर को ढंक सकता है, कोई महंगे कपड़े पहनने की कोई आवश्यकता नहीं होती। जीवन के लिए किसी चीज की आवश्यकता तो हो सकती है और उसे पूरा करने का प्रयास भी किया जा सकता है, किन्तु लालसा के वशीभूत होकर उसीमें रम जाना अच्छा नहीं होता। आदमी को विचार करना चाहिए कि जीवन में सबकुछ हो सकता है, समय बीत रहा है तो वह अपनी आत्मा के कल्याण के लिए तथा आगे के जीवन को अच्छा बनाए रखने के लिए क्या करता है। जैसे-जैसे समय बढ़ता है, वैसे-वैसे जीवन में धर्म की साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। जवानी के समय में भी अन्य कार्यों के साथ जितना संभव हो सके, धर्म करने का प्रयास करना चाहिए। जीवन में यथासंभव ईमानदारी, नैतिकता, अहिंसा रखने से भी धर्म की बात हो सकती है। जीवन में ईमानदारी, नैतिकता, अहिंसा रूपी धर्म के लिए अलग कोई समय लगाने की भी अपेक्षा नहीं होती है। उसके बाद जितना संभव हो सके धर्म-ध्यान के लिए भी समय निकालने का प्रयास करना चाहिए। गृहस्थ अपने जीवन में जितना त्याग कर ले, वह उसके लिए कल्याणकारी हो सकता है। जितना संभव हो सके आदमी को अपने जीवन में त्याग और संयम की चेतना का विकास करने का प्रयास करना चाहिए। पहले आदमी भोग भोगता है और फिर भोग आदमी को भोग लेता है। जैसे पहले आदमी शराब पीता है और बाद में शराब आदमी को पी जाती है। इसलिए जितना संभव हो, भोग नहीं योग की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। आदमी अपने जीवन में केवल भोगी और रोगी नहीं, योगी भी बनने का प्रयास करना चाहिए। आसन, प्राणायाम ही नहीं, मोक्ष के मार्ग से जोड़ने वाला सारी पवृत्ति अपने आप में योग होती है। इसलिए आदमी को यथासंभव मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। मंगल प्रवचन के उपरान्त होसपेट के श्री अशोकजी ने अपनी अभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने होसपेटवासियों को पावन आशीर्वाद प्रदान किया। श्रीमती शायर बोथरा ने अपनी भावाभिव्यक्ति देते हुए पूज्यप्रवर के समक्ष ‘चैतन्य केन्द्र एवं अन्य योग चक्रों का तुलनात्मक अध्ययन’ शोध ग्रन्थ को आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित किया। इस संदर्भ में आचार्यश्री ने पावन आशीर्वाद प्रदान किया। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में जैन विश्व भारती की ओर से संघ सेवा पुरस्कार समारोह का आयोजन किया गया। नेमचंद जेसराज सेखानी चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा श्रीमती पानादेवी सेखानी संघ सेवा पुरस्कार-वर्ष 2024 श्री बुधमल दुगड़ (कोलकाता) को प्रदान किया गया। इस संदर्भ में श्रीमती सरिता सेखानी ने अपनी अभिव्यक्ति दी। श्री दुगड़ के सम्मान पत्र का वाचन जैन विश्व भारती के मंत्री श्री सलिल लोढ़ा ने किया। श्रीमती मधु दुगड़ ने ने भी इस संदर्भ में अपनी अभिव्यक्ति दी। विकास परिषद के सदस्य श्री बनेचंद मालू ने भी अपनी अभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने इस संदर्भ में पुरस्कारप्राप्तकर्ता व पुरस्कार प्रदाता परिवार व संस्था को पावन आशीर्वाद प्रदान किया। श्री सुरेन्द्र दुगड़ ने अपने कृतज्ञभावों को प्रस्तुति दी।Next: जैन भगवती दीक्षा समारोह में दो बहनों ने संयम जीवन किया स्वीकार महातपस्वी महाश्रमण की मंगल सन्निधि में सूरत में आयोजित हुआ दूसरा दीक्षा समारोह….सुरेंद्र मुनोत, ऐसोसिएट एडिटर, Key Line Times तेरापंथ धर्मसंघ के 31वें विकास महोत्सव का हुआ भव्य आयोजन* *-विकास के लिए परिस्कार भी आवश्यक : शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण* *12.09.2024, गुरुवार, वेसु, सूरत (गुजरात) :* दुनिया में डायमण्ड व सिल्क सिटि के रूप में सुविख्यात सूरत शहर में वर्ष 2024 का चतुर्मास कर रहे जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, मानवता के मसीहा, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने गुरुवार को तेरापंथ धर्मसंघ के 31वें विकास महोत्सव के अवसर पर सूरत की धरा पर इस चतुर्मास के दौरान दूसरे दीक्षा समारोह में दो दीक्षार्थियों को दीक्षा प्रदान कर संयम पथ पर आगे बढ़ाया तो पूरा संयम विहार मानों जयघोष से गुंजायमान हो उठा। आचार्यश्री की इस कृपा से विकास महोत्सव पर तेरापंथ धर्मसंघ की साधु परंपरा में साध्वियों की संख्या भी वृद्धिंगत हुई। गुरुवार को महावीर समवसरण में दो-दो आयोजन एक साथ हो रहे थे। एक ओर तेरापंथाधिशास्ता की सन्निधि में तेरापंथ धर्मसंघ का 31वें विकास महोत्सव का अवसर था तो दूसरी ओर सूरत की धरा पर इस चतुर्मास के दौरान दूसरी जैन भगवती दीक्षा समारोह का भव्य समायोजन भी हो रहा था। आज का प्रथम कार्यक्रम विकास महोत्सव के रूप में समायोजित हुआ। 31वें विकास महोत्सव का शुभारम्भ युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी के मुखकमल से उच्चरित महामंत्रोच्चार से हुआ। तेरापंथ महिला मण्डल-सूरत ने गीत का संगान किया। विकास परिषद के संयोजक श्री मांगीलाल सेठिया, सदस्य श्री पदमचन्द पटावरी व श्री बनेचंद मालू ने अपनी विचाराभिव्यक्ति दी। साध्वीवृंद ने विकास महोत्सव के संदर्भ में गीत का संगान किया। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी, साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने विकास महोत्सव के संदर्भ में जनता को उद्बोधित किया। तदुपरान्त विकास महोत्सव के साथ महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में सूरत चतुर्मास के दौरान आयोजित दूसरे जैन भगवती दीक्षा समारोह का आयोजन भी था। इस समारोह के अंतर्गत मुमुक्षु अंजलि सिंघवी ने दीक्षार्थी बहनों का परिचय प्रस्तुत किया। तदुपरान्त पारमार्थिक शिक्षण संस्था के अध्यक्ष श्री बजरंगलाल जैन ने दीक्षार्थियों के परिजनों से प्राप्त आज्ञा पत्रों का वाचन किया। दीक्षार्थियों के परिजनों ने आज्ञा पत्र आचार्यश्री के करकमलों में समर्पित किया। दीक्षार्थी ऋजुल मेहता तथा दीक्षार्थी दीप्ति वेदमूथा ने अपनी आस्थासिक्त अभिव्यक्ति दी। वर्तमान तेरापंथाधिशास्ता युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आज के अवसर पर समुपस्थित जनमेदिनी को पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि मैंने अतीत में जो कुछ भी प्रमाद किया है, वह अब नहीं करूंगा। यह वाक्य संन्यास से जुड़ा हुआ उद्घोष है। आज जैन भगवती दीक्षा का अवसर भी है। आचार्यश्री ने दीक्षार्थियों के परिजनों से परिषद के मध्य मौखिक आज्ञा भी लेने के साथ ही दोनों दीक्षार्थियों की भावनाओं का अंतिम परिक्षण किया। तदुपरान्त आर्षवाणी का उच्चारण करते हुए दीक्षार्थियों को दीक्षा प्रदान की। आचार्यश्री ने तीन करण तीन योग से सर्व सावद्य योग का त्याग कराया। नवदीक्षित साध्वियों को आचार्यश्री को सविधि वंदन किया। आचार्यश्री ने आर्षवाणी का उच्चारण करते हुए नवदीक्षित साध्वियों को अतीत की आलोचना कराई। नवदीक्षित साध्वियों के केशलोच का संस्कार साध्वीप्रमुखाजी ने पूर्ण किया। तदुपरान्त साध्वीप्रमुखाजी ने नवदीक्षित साध्वियों को रजोहरण प्रदान किया। आचार्यश्री ने दीक्षार्थी ऋजुल को साध्वी धन्यप्रभाजी तथा दीक्षार्थी दीप्ति को साध्वी देवार्यप्रभाजी नवीन नाम प्रदान किया। इस प्रकार आचार्यश्री ने नवदीक्षित साध्वियों को नवीन नाम प्रदान किया। समुपस्थित विशालजनमेदिनी ने नवदीक्षित साध्वियों का अभिवादन किया। आचार्यश्री ने नवदीक्षित साध्वियों को यतनापूर्वक अपना प्रत्येक कार्य करने तथा जीवन में संयम रखने की प्रेरणा प्रदान की। महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने विकास महोत्सव के संदर्भ में पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि भाद्रव शुक्ला नवमी का दिन वर्षों तक हमारे धर्मसंघ में आचार्यश्री तुलसी के पट्टोत्सव के रूप में मनाया जाता था। सन् 1994 में सुजानगढ़ मर्यादा महोत्सव के समारोह में अपने आचार्य पद के विसर्जन की घोषणा की और युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी को आचार्य के रूप में उद्घोषित किया। इसके साथ ही उन्होंने घोषणा कर दी कि अब मेरा पट्टोत्सव नहीं, वर्तमान आचार्य का पट्टोत्सव मनाया जाएगा। ऐसे में प्रज्ञावान आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने एक बीच का रास्ता निकाला और परम पूज्य गुरुदेव तुलसी के पट्टोत्सव को विकास महोत्सव के रूप में मनाने की घोषणा कर दी। इस विकास महोत्सव की पृष्ठभूमि में विसर्जन और त्याग से पैदा हुआ महोत्सव है। सभी को अपने जीवन में विकास करने का प्रयास करना चाहिए। अनुशासन विकास का मूल कहा जाता है। जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ को प्रारम्भ हुए 264 वर्ष बीत चुके हैं। एक दशक के आचार्य की शृंखला सम्पन्न हो चुकी है और दूसरे दशक के आचार्य परंपरा का प्रथम चरण प्रारम्भ है। जीवन में विकास करने का प्रयास करना चाहिए। अच्छाई को लेने और गलत को छोड़ने की भावना होनी चाहिए। विकास के लिए परिस्कार की अपेक्षा होती है। आचार्यश्री ने विकास महोत्सव के आधारभूत पत्र का वाचन कर जनता को श्रवण कराया। तीन बाइयों को मुमुक्षु रूप में पारमार्थिक शिक्षण संस्था में कार्य करने हेतु मंगलपाठ सुनाया। विकास महोत्सव के संदर्भ में आचार्यश्री ने स्वरचित गीत का संगान किया। इस अवसर पर आचार्यश्री ने चतुर्मास के उपरान्त अनेक साधु-साध्वियों के आगे के विहार क्षेत्र की घोषणा की। आचार्यश्री ने धर्मसंघ में निरंतर विकास करने और धार्मिक-आध्यात्मिक उन्नति करने की प्रेरणा प्रदान की। आचार्यश्री के साथ चतुर्विध धर्मसंघ ने अपने स्थान पर खड़े होकर संघगान किया। आचार्यश्री ने संघगान के उपरान्त जयघोष भी कराया। तपस्वियों ने अपनी-अपनी तपस्या का प्रत्याख्यान किया। बाव के राणा श्री गजेन्द्रसिंह ने आचार्यश्री के दर्शन कर आशीर्वाद प्राप्त करने के उपरान्त उन्होंने अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने उन्हें पावन आशीर्वाद प्रदान किया।